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________________ १७ वॉ वर्ष ४३ विप्र - ( हेतु-कारण- प्रे०) हे राजन् । शिखरबध ऊँचे आवास करवाकर, मणिकचनमय गवाक्षादि रखवाकर और तालाब मे क्रीडा करनेके मनोहर महालय बनवाकर फिर जाना । नमिराज - (हेतु कारण-प्रे०) तूने जिस प्रकारके आवास गिनाये है उस उस प्रकारके आवास मुझे अस्थिर एव अशाश्वत मालूम होते है । वे मार्गके घररूप लगते है । इसलिये जहाँ स्वधाम है, जहाँ शाश्वतता है, और जहाँ स्थिरता है वहाँ मैं निवास करना चाहता हूँ । 1 - विप्र - (हेतु-कारण-प्रे०) हे क्षत्रियशिरोमणि । अनेक प्रकारके तस्करोके उपद्रवको दूर करके, और इस तरह नगरीका कल्याण करके तू जाना । मिराज - विप्र | अज्ञानी मनुष्य अनेक बार मिथ्या दड़ देते हैं । चोरी न करनेवाले जो शरीरादिक पुद्गल है वे लोकमे बाँधे जाते है, और चोरी करनेवाले जो इन्द्रियविकार है उन्हे कोई बाँध नहो सकता । तो फिर ऐसा करनेकी क्या आवश्यकता ? विप्र - हे क्षत्रिय । जो राजा तेरी आज्ञाका पालन नही करते हैं और जो नराधिप स्वतत्रतासे चलते है उन्हे तू अपने वशमे करनेके बाद जाना । नागराज - ( हेतु - कारण - प्रे०) दस लाख सुभटोको सग्राममे जीतना दुष्कर गिना जाता है, तो भी ऐसी विजय करनेवाले पुरुष अनेक मिल जाते है, परन्तु एक स्वात्माको जीतनेवाला मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । उन दस लाख सुभटोपर विजय पानेवालेकी अपेक्षा एक स्वात्माको जीतनेवाला पुरुष परमोत्कृष्ट है । आत्माके साथ युद्ध करना उचित है । बहिर्युद्धका क्या प्रयोजन है ? ज्ञानरूप आत्मासे क्रोधादि युक्त आत्मा को जीतनेवाला स्तुतिपात्र है । पाँचो इन्द्रियोको क्रोधको, मानको, मायाको तथा लोभको जीतना दुष्कर है । जिसने मनोयो॒गादिको जीता उसने सबको जीता । विप्र—(हेतु-कारण प्रे०) समर्थ यज्ञ करके, श्रमण, तपस्वी, ब्राह्मण आदिको भोजन देकर, सुवर्ण आदिका दान देकर, मनोज्ञ भोगोको भोगकर हे क्षत्रिय । तू बादमे जाना । नमिराज – (हेतु-कारण-प्रे०) हर महीने यदि दस लाख गायोका दान दे तो भी उस गायोके दानकी अपेक्षा जो सयम ग्रहण करके सयमकी आराधना करता है, वह उसकी अपेक्षा विशेष मगल प्राप्त करता है । विप्र--निर्वाह करनेके लिये भिक्षासे सुशील प्रव्रज्यामे असह्य परिश्रम सहना पड़ता है, इसलिये उस प्रव्रज्याका त्याग करके अन्य प्रव्रज्यामे रुचि होती है, इसलिये इस उपाधिको दूर करनेके लिये तू गृहस्थाश्रममे रहकर पौषधादि व्रतमे तत्पर रहना । हे मनुष्याधिपति । मै ठीक कहता हूँ । नमिराज - ( हेतु - कारण -प्रे०) हे विप्र । बाल अविवेकी चाहे जैसा उग्र तप करे परतु वह सम्यक् - श्रुतधर्म तथा चारित्रधर्मके तुल्य नही हो सकता । एकाध कला सोलह कलाओ जैसी कैसे मानो जाये ? विप्र - अहो क्षत्रिय । सुवर्ण, मणि, मुक्ताफल, वस्त्रालकार और अश्वादिकी वृद्धि करके पीछे | जाना । नमिराज - ( हेतु - कारण - प्रे० ) मेरु पर्वत जैसे कदाचित् सोने-चांदी के असख्यात पर्वत हो तो भी लोभी मनुष्यकी तृष्णा नही बुझती । वह किंचित् मात्र सतोषको प्राप्त नही होता । तृष्णा आकाश जैसी अनत है । धन, सुवर्ण, चतुष्पाद इत्यादिसे सकल लोक भर जाये इतना सब लोभी मनुष्यकी तृष्णा दूर करनेके लिये समर्थ नही है। लोभकी ऐसी निकृष्टता है । इसलिये सतोषनिवृत्तिरूप तपका विवेकी पुरुष आचरण . करते हैं । विप्र - ( हेतु-कारण-प्रे०) हे क्षत्रिय । मुझे अद्भुत आश्चर्य होता है कि तू विद्यमान भोगोको छोड़ता है। फिर अविद्यमान कामभोगके सकल्प-विकल्प करके भ्रष्ट होगा । इसलिये इस सारी मुनित्वसवधी उपाधिको छोड़ |
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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