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________________ १७वे वर्षसे पहले १५ दोहे ज्ञानी के अज्ञानी जन, सुख दुःख रहित न कोय । वेदे धैर्ययी, अज्ञानी वेदे ज्ञानी रोय ॥ मंत्र तंत्र औषध नहीं, जेथी पाप वीतराग वाणी विना, अवर न कोई पलाय । उपाय ॥ वचनामृत वीतरागनां परम शांतरस मूल । औषध जे भवरोगनां, कायरने प्रतिकूल ॥ जन्म, जरा ने मृत्यु, मुख्य दुःखना हेतु । कारण तेनां बे कह्यां, राग द्वेष अणहेतु ॥ नयी घर्यो देह विषय नथो धर्यो देह परिग्रह वधारवा । धारवा ॥ ३३ भावार्थ - ज्ञानी या अज्ञानी कोई भी मनुष्य सुखदु खसे रहित नही है । ज्ञानी सुखदुखको धैर्यसे भोगता है और अज्ञानी रो रोकर भोगता है । ससारमें कोई भी मत्र, तत्र और औषध नही है कि जिससे पाप दूर किया जाये । वीतरागकी वाणीके सिवाय पापका नाशक अन्य कोई उपाय नही है । वीतरागके वचनामृत परम शांतरसके मूल हैं, जो भवरोगके औषध है, परन्तु कायरके लिये प्रतिकूल हैं । जन्म, जरा और मृत्यु दु खके मुख्य हेतु है । अनावश्यक राग और द्वेष ही उनके दो कारण कहे हैं । हे जीव । तूने विषयको बढानेके लिये देह धारण नही की है, और परिग्रहको अपनानेके लिये भी देह धारण नही की है । Joi
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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