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१७वे वर्षसे पहले
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दोहे
ज्ञानी के अज्ञानी जन, सुख दुःख रहित न कोय । वेदे धैर्ययी, अज्ञानी वेदे
ज्ञानी
रोय ॥
मंत्र तंत्र औषध नहीं, जेथी पाप वीतराग वाणी विना, अवर न कोई
पलाय ।
उपाय ॥
वचनामृत वीतरागनां परम शांतरस मूल । औषध जे भवरोगनां, कायरने प्रतिकूल ॥
जन्म, जरा ने मृत्यु, मुख्य दुःखना हेतु । कारण तेनां बे कह्यां, राग द्वेष अणहेतु ॥
नयी घर्यो देह विषय नथो धर्यो देह परिग्रह
वधारवा । धारवा ॥
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भावार्थ - ज्ञानी या अज्ञानी कोई भी मनुष्य सुखदु खसे रहित नही है । ज्ञानी सुखदुखको धैर्यसे भोगता है और अज्ञानी रो रोकर भोगता है ।
ससारमें कोई भी मत्र, तत्र और औषध नही है कि जिससे पाप दूर किया जाये । वीतरागकी वाणीके सिवाय पापका नाशक अन्य कोई उपाय नही है ।
वीतरागके वचनामृत परम शांतरसके मूल हैं, जो भवरोगके औषध है, परन्तु कायरके लिये प्रतिकूल हैं ।
जन्म, जरा और मृत्यु दु खके मुख्य हेतु है । अनावश्यक राग और द्वेष ही उनके दो कारण कहे हैं ।
हे जीव । तूने विषयको बढानेके लिये देह धारण नही की है, और परिग्रहको अपनानेके लिये भी देह धारण नही की है ।
Joi