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________________ १७वें वर्षसे पहले विवेकदृष्टि और दिवेकदृष्टि अर्थात् सम्यग्दृष्टि । इनका यह बोध सपूर्ण सत्य ही है । विवेकदृष्टिके बिना सत्य कहाँसे सूझे ? और सत्य सूझे बिना सत्यका ग्रहण भी कहाँसे हो ? इसलिये सभी प्रकारसे सम्यग्दृष्टिका उपयोग करना चाहिये । यह भी इसका सूचन क्या कम श्रेयस्कर है ? ___ हे पापी आत्मन् । तूने अनेक स्थलो पर जैन मुनीश्वरोको अहिसा सहित इन नौ सिद्धातोका उपदेश देते हुए सुना था। परन्तु उस समय तुझे भली दृष्टि ही कहाँ थी? इसके ये नवो सिद्धात कैसे निर्मल है । इसमे तिलभर बढती या जौ भर घटती नही है । इनके धर्ममे किंचित् विरोध नही है। इसमे जितना कहा है उतना सत्य ही है। मन, वचन और कायाका दमन करके आत्माकी शाति चाहो । यही इसका स्थल-स्थल पर उपदेश है। इसका प्रत्येक सिद्धात सृष्टिनियमका स्वाभाविक रूपसे अनुसरण करता है। इसने शील सबधी जो उपदेश दिया है, वह कैसा प्रभावशाली है | पुरुषोको एक पत्नीव्रत और स्त्रियोको एक पतिव्रतका तो (ससार न छोडा जा सके, और कामका दहन न हो सके तो) पालन करना ही चाहिये। इसमे उभय पक्षमे कितना फल है । एक तो मुक्तिमार्ग और दूसरा ससारमार्ग, इन दोनोमे इससे लाभ है। आज केवल ससारका लाभ तो देख । एक पत्नीव्रत ( स्त्रीको पतिव्रत) को पालते हुए प्रत्यक्षमे भी उसकी सुमनोकामना धारणानुसार पूरी हो जाती है। यह कीर्तिकर और शरीरसे भी आरोग्यप्रद है। यह भी ससारी लाभ है । परस्त्रीगामी कलकित होता है । आतशक, प्रमेह, और क्षय आदि रोग सहन करने पड़ते हैं । और दूसरे अनेक दुराचार लग जाते है। यह सब ससारमे भी दुखकारक है, तो वे मुक्तिमार्गमे किसलिये दुःखप्रद न हो ? देख, किसोको अपनी पुनीत स्त्रीसे वैसा रोग हुआ सुना है ? इसलिये इसके सिद्धात दोनो पक्षोमे श्रेयस्कर है। सच्चा तो सर्वत्र अच्छा ही हो न ? गरम पानी पीने सबधी इसका उपदेश सभीके लिये है और अन्तमे जो वैसा न कर सके वह भी छाने बिना तो पानी न ही पिये। यह सिद्धात दोनो पक्षमे लाभदायक है। परन्तु हे दुरात्मन् | तू मात्र ससारपक्ष ही ( तेरी अल्पबुद्धि है तो) देख । एक तो रोग होनेका सभव कम ही रहता है। अनछना पानी पीनेसे कितने-कितने प्रकारके रोगोकी उत्पत्ति होतो है । नारू, हैजा आदि अनेक प्रकारके रोगोकी उत्पत्ति इसीसे होती है। जब यहाँ पवित्र रूपसे लाभकारक है, तब मुक्तिपक्षमे किसलिये न हो ? इन नौ सिद्धातोमे कितना अधिक तत्त्व रहा है। जो एक सिद्धान्त है वह एक जवाहरातकी लडी है। वैसे नौ सिद्धातोसे बनी हुई यह नौलडी माला जो अंतकरणरूपी गलेमे पहने वह किसलिये दिव्य सुखका भोक्ता न हो ? यथार्थ एव नि स्वार्थ धर्म तो यह एक ही है। हे दुरात्मन् । यह काला नाग अब करवट बदल कर तेरी ओर ताकनेको तैयार हुआ है। इसलिये तू अब इस धर्मके 'नवकार स्तोत्र'का स्मरण कर । और अब आगेके जन्ममे भी इसी धमकी मॉग । ऐसा जब मेरा मन हो गया और “नमो अरिहताण" यह शब्द मुखसे कहता हूँ तब दूसरा कौतुक हुआ। जो भयकर नाग मेरे प्राण लेनेके लिये करवट बदल रहा था वह काला नाग वहाँसे धीरेसे खिसककर बाबीकी ओर जाता हआ मालूम हुआ। इसके मनसे ही ऐसी इच्छा उत्पन्न हुई कि मै धीरे-धीरे खिसक जाऊँ, नही तो यह बेचारा पामर प्राणी अब भयमे ही कालधर्मको प्राप्त हो जायेगा । ऐसा सोच कर वह खिसककर दूर चला गया। दूर जाते हुए वह बोला-'हे राजकुमार । तेरे प्राण लेनेमे मैं एक पलकी भी देर करनेवाला न था, परन्तु तुझे शुद्ध वैराग्य और जैनधर्ममे निमग्न देखकर मेरा दिल धीरेधीरे पिघलता गया। वह ऐसा तो कोमल हो गया कि हद हो गयी। यह सब होनेका कारण मात्र जैनधर्म ही है। तेरे अत'करणमे जब उस धर्मकी तरगे उठ रही थी तब मेरे मनमे उसी धर्मकी तरगसे तुझे न मारना ऐसा स्फरित हो आया था। जैसे-जैसे धीरे-धीरे तुझपर उस धर्मका असर बढता गया वैसेवैसे मेरी सुमनोवृत्ति तेरी ओर होती गयी । अन्तमे तूने जब “नमो अरिहताण" इतना कहा तब तुझे पूरा जैनास्तिक हआ देखकर मैंने अपना शरीर खिसका दिया । इसलिये तू मन, वचन और कायासे उस धर्मका पालन करना । तू यह मान कि मैं जैनधर्मके प्रतापसे ही अब तुझे जिंदा छोड़ रहा हूँ। यह धर्म तो धर्म
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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