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________________ ८९९ परिशिष्ट ५ कंखामोहनीय-तप आदि करके परलोकके सुखको गजसुकुमार-श्रीकृष्ण वासुदेवके छोटे भाई। देखें अभिलाषा करना । कर्म तथा कर्मके फलमें तन्मय 'मोक्षमाला' शिक्षापाठ ४३ ।। होना या अन्य धर्मोकी इच्छा करना (पचाध्यायी) गणधर-तीर्थकरके मुख्य शिष्य । आचार्यकी आज्ञानुकचन-स्वर्ण; सोना। सार साधुसमुदायको लेकर पृथ्वीमडलपर विचरनेक्रम-अनुक्रम, एकके बाद एक आये ऐसी सकलना। वाले समयं साधु । क्रियाजड-जो मात्र बाह्यक्रियामें ही अनुरक्त हो रहे गणितानुयोग-जिन शास्त्रोमे लोकका माप तथा स्वर्ग, - 1 है, जिनका अन्तर कुछ भिदा नही है ओर जो नरक आदिकी लबाई आदिका एव कर्मके वध 'ज्ञानमार्गका निषेध किया करते हैं। (आत्मसिद्धि, आदिका वर्णन हो । (व्याख्यानसार १-१७३) दोहा ४) गतभव-पूर्वभव, पूर्वजन्म । क्रीडा-विलास-भोगविलास । गतशोक-शोकरहित । क्षण-समय या कालका छोटा भाग। गति आगति-गमनागमन, जाना आना। क्षपककर्मक्षय करनेवाला साधु, जैन तपस्वी । गुमान- अहकार, अभिमान । क्षपकश्रेणी--जिसमे चारित्रनोहनीयकर्मकी २१ प्रकृ- गुणनिष्पन्न-जिसे गुण प्राप्त हुए हैं। तियोका क्षय किया जाय ऐसी क्षण-क्षणमे चढ़ती गुणस्थान-मोह और योगके निमित्तसे सम्यग्दर्शन, हुई दशा। सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारियरूप आत्माके गुणोकी क्षमा--चित्तकी एक प्रकारको वृत्ति जिससे मनुष्य तारतम्यरूप अवस्थाविशेषको गुणस्थान कहते है । दूसरे द्वारा पहुँचाया हुआ कष्ट सह लेता है और (गोम्मटसार), गुणोकी प्रगटता वह गुणस्थान । उसके प्रतिकार या दडको अभिलाषा नही करता। गुल्ता-बडप्पन, महत्त्व, गुरुपन । क्रोध न करना । माफी देना। गोकुलचरित्र-श्रीमनसुखराम सूर्यरामका लिखा हुआ क्षमापना-भूलकी माफी मांगना । श्री गोकुलजी झालाका जीवनचरित्र । क्षायिकचारित्र-मोहनीयकर्मके क्षयसे जो चारित्र गौतम-भगवान महावीरके प्रधान शिष्य, गणधर । - (आत्मस्थिरता) उत्पन्न हो । इनका दूसरा नाम इन्द्रभूति था। क्षायिकभाव-कर्मके नाशसे जो भाव उत्पन्न हो जैसे ग्रथ-पुस्तक, शास्त्र, वाह्य, अभ्यतर परिग्रह, गांठ । कि केवलदर्शन, केवलज्ञान । (आत्मसिद्धि, दोहा १००) क्षायिक सम्यग्दर्शन-मोहनीयकर्मकी सात प्रकृतियोंके ग्रथि-रागद्वेषकी निविड गांठ । मिथ्यात्वकी गांठ । ___ अभावमे जो आत्मप्रतीति, अनुभव उत्पन्न हो। ग्रंथि-भेद-जड ओर चेतनका भेद करना । मिथ्यात्वको क्षायोपशामिक सम्यक्त्व-जो दर्शन मोहनीयकर्मके गाठका टूटना। क्षय और उपशमसे हो ऐसी आत्मश्रद्धा । गृहस्थी-थावक; गृहवासी, घरमें रहनेवाला । क्षोणकषाय-(क्षीणमोह) वारहवां गुणस्थान, जो ग्यारहवाँ गुणस्यान-उपशान्तमोह । मोहनीयकर्मके सर्वथा क्षय होनेसे यथाख्यातचारित्रके घ धारक मुनिको होता है। घटपरिचय-हृदयको पहिचान । घटाटोप-वादलोफै समान चारो ओरसे घेर लेनेवाला खल-दुष्ट । दल या समूह । चारो ओरसे आच्छादित सुद्ध । खंती दती प्रवज्या-जिस दीक्षामे क्षमा तथा इन्द्रिय- घनघातीफर्म-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय निग्रह है। तथा अतराय, ये चार फर्म । आ-माको मूल गुणोपों आवरण करनेवाले होनेसे इन्हें पनपातीशम कहते है। गच्छ-समुदाय, गण, सघ, साधुसमुदाय, एक आचार्य- घनरज्जु-जिसको दाई, चौडाई चार नोटाई नमान का परिवार। हो, उस प्रकार रन्जुरा परिमान करना यह ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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