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________________ परिशिष्ट ५ ८९७ आसक्त-अनुरक्त, लोन, लिप्त, मोहित, मुग्ध। उत्सूत्रप्ररूपणा-आगमविरुद्ध कथन । आसक्ति-गाढ मोह, लीनता । उदक पेढाल-सूत्रकृताङ्ग नामक दूसरे अगमें इस आस्तिक्य-जिनका परम माहात्म्य है ऐसे निस्पृही नामका एक अध्ययन है। पुरुपोके वचनमें ही तल्लीनता। (आक १३५) उदय-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको लेकर कर्म जो आस्रव-ज्ञानावरणादि कर्मोका आना। अपनी शक्ति दिखाते है उसे कर्मका उदय कहते आस्रवभावना-राग, द्वेष, अज्ञान, मिथ्यात्व इत्यादि है। स्थिति पूर्ण होनेपर कर्मफलका प्रगट होना। सर्व आस्रव है, वे रोकने या टालने योग्य है ऐसा उदासीनता-समभाव, वैराग्य, शान्तता, मध्यस्थता। चिंतन करना । (भावनाबोध) उदीरणा--स्थिति पूरी किये बिना ही कर्मोका फल तपादिके कारणसे उदयमें आवे उसे उदीरणा इतिहास-भूतकालका वृत्तान्त । कहते हैं। इन्द्र-स्वर्गका अधिपति, देवोका स्वामी। उपजीवन-आजीविका (आक ६४) इन्द्राणी- इन्द्रको पली। उपयोग-चैतन्य परिणति, जिससे पदार्थका वोघ हो। इद्रिय-ज्ञानका बाह्य साधन । , ,, उपशमभाव-कर्मोके शात होनेसे उत्पन्न हुआ भाव । इन्द्रियगम्य-जो इन्द्रियसे जाना जाय । उपशमश्रेणी-जिसमें चारित्र-मोहनीय कर्मकी २१ इद्रियनिग्रह-इन्द्रियोको वश करना । प्रकृतियोका उपशम किया जाय । (जैनसिद्धान्तइष्टदेव-जिस पर श्रद्धा जम गई हो ऐसे आराध्यदेव । प्रवेशिका) इष्टसिद्धि-इच्छित कार्यकी सिद्धि । . उपाधि-जजाल। उपाध्याय-जो साधु शास्त्रोका अध्ययन करावे । ईर्यापथिको क्रिया-कषायरहित पुरुषकी क्रिया, चलने- उपाश्रय-साधु साध्वियोका आश्रयस्थान । की क्रिया। उपासक-पूजाभक्ति करनेवाला, साधुओकी उपासना ईर्यासमिति-दूसरे जीवोकी रक्षाके लिये चार हाथ करनेवाला श्रावक । जमीन आगे देखकर ज्ञानीकी आज्ञानुसार चलना। उपेक्षा-अनादर, तिरस्कार, विरक्ति, उदासीनता । ईश्वर-जिसमें ज्ञानादि ऐश्वर्य है। "ईश्वर शुद्ध __ स्वभाव" (आत्मसिद्धि दोहा ७७) ऊर्ध्वगति-ऊँची गति । ईश्वरेच्छा-प्रारब, कर्मोदय, उपचारसे ईश्वरकी ऊर्ध्वप्रचय-पदार्यमे धर्मका उद्भव होना, क्षण-क्षणमे __इच्छा, आज्ञा । होनेवाली अवस्था। ईषत्प्रारभारा-आठवी पृथ्वी, सिद्धशिला। ऊर्ध्वलोक-स्वर्ग, मोक्ष । ऊहापोह-तर्क-नितर्क, सोच-विचार । उच्चगोत्र-लोकमान्य कुल । उजागर-आत्मजागृतिरूप दशा । ऋषभदेव-जैनोके आदि तीर्थकर । उत्कट-प्रवल, तीन । ऋषि-जो बहुत ऋद्धियोंके धारी हो । मृपिये चार उत्कर्ष-समृद्धि, श्रेष्ठता, उत्तमता । हर्ष, अहकार । भेद है -१ राज०, २ ब्रह्म०, ३ देव०, ४ उत्तरोत्तर-आगे-आगे, क्रमश , अधिक-अधिक । परम० । राजपि-द्धिवाले, ब्रह्मर्षिअसीण महान उत्पाद-उत्पत्ति । ऋद्धिवाले, देवर्षि-आकारागामी मुनिदेव, परमपि उत्सर्पिणीकाल-चढते हुए छह कालचक्र पूरे हो, केवलज्ञानी। उतना समय । दस कोडाफोडी सागरका चढता हुआ काल । जिसमें आयु, वैभव, बल आदि बढ़ते एकत्वभावना- यह मेरा आत्मा अपना ह वह बोला जावे ऐसा कालप्रवाह । आया है, अकेला जायेगा, अपने रिपे हुए कर्म ए -
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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