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________________ २६ श्रीमद् राजचन्द्र अपने जीवनकी शका होने लगी। मेरा प्यारा जीव कि जिससे मै सारे ब्रह्माण्डके राज्य जैसा वैभव भोग रहा है, वह अब इस नरदेहको छोड कर चला जायेगा। रेचला जायेगा | अरे । अब मेरी कैसी विपरीत गति हो गयी। मेरे जैसे पापीको ऐसा ही उचित है। ले पापी जीव | तू ही अपने कर्तव्यको भोग । तूने अनेकोके कलेजे जलाये है। तूने अनेक रक प्राणियोका दमन किया है, तूने अनेक सतोको सतप्त किया है। तूने अनेक मती सुन्दरियोका गील भग किया है। तूने अनेक मनुष्योको अन्यायसे दडित किया है। सक्षेपमे तुने किसी भी प्रकारके पापमे कमी नही रखी। इसलिये रे पापी जीव । अव तू ही अपना फल भोग । तू अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करता रहा, और साथ ही मदाध होकर ऐसा भी मानता था कि मैं क्या दुखी होनेवाला था ? मुझे क्या कष्ट आने वाले थे ? परन्तु रे पापी प्राण | अव देख ले । तू अपने इम मिथ्या मदका फल भोग ले । तू मानता था कि पापका फल है ही नहीं। परन्तु देख ले, अब यह क्या है ? इस तरह मै पश्चात्तापमे डूब गया | अरे हाय । मै अव वचूँगा ही नही ? यह विडम्वना मुझे हो गयी। इस समय मेरे पापी अन्त करणमे यह आया कि यदि अभी कोई आकर मुझे एकदम बचा ले तो कैसा मागलिक हो । वह प्राणदाता इसी क्षण जो माँगे उसे देनेके लिये बँध जाऊ। वह मेरे सारे मालवा देशका राज्य माँगे तो देनेमे ढील न करूँ। और इतना सव देते हुए भी और माँगे तो अपनी एक हजार नव-यौवना रानियाँ दे दूं। वह माँगे तो अपनी विपुल राजलक्ष्मी उसके चरणकमलोमे धर दूं। और इतना सव देते हुए भी वह कहता हो तो मै जीवन पर्यंत उसके किंकरका किंकर होकर रहूँ। परन्तु मुझे इस समय कौन जीवनदान दे ? ऐसी-ऐसी तरगोमे झोके खाता-खाता मै आपके पवित्र जैन धर्मके चिन्तनमे पड गया । इसके कथनका मुझे उस समय भान हो आया । इसके पवित्र सिद्धान्त उस समय मेरे अन्तःकरणमे प्रभावक ढगसे अकित हो गये । और उसने उनका यथार्थ मनन शुरू कर दिया, कि जिससे आपके समक्ष आनेके लिये यह पापी प्राणी समर्थ हुआ। १ अभयदान-यह सर्वोत्कृष्ट दान है । इसके जैसा एक भी दान नही है। इस सिद्धातका प्रथम मेरा अन्त करण मनन करने लगा। अहो | इसका यह सिद्धात कैसा निर्मल और पवित्र है। किसी भी प्राणीभूतको पीडा देना महापाप है। यह वात मेरे रोम-रोममे व्याप्त हो गयी-व्याप्त हुई तो ऐसी कि हजार जन्मातरमे भी न छटके | ऐसा विचार भी आया कि कदाचित् पुनर्जन्म न हो, ऐसा क्षणभरके लिये मान ले, तो भी की गयी हिंसाका किंचित् फल भी इस जन्ममे मिलता जरूर है। नही तो तेरी ऐसी विपरीत दशा कहाँसे होती? तुझे सदा शिकारका पापी शोक लगा था, और इसीलिये तूने आज जानबूझकर दयालुओका दिल दुखानेका उपाय किया था, तो अब यह उसका फल तुझे मिला ! तू अब केवल पापी मीतके पजेमे फंसा । तुझमे केवल हिंसामति न होती, तो ऐसा वक्त तुझे भिलता ही क्यो ? मिलता ही नहीं । केवल यह तेरी नीच मनोवृत्तिका फल है। हे पापी आत्मन् । अव तू यहाँसे अर्थात् इस देहसे मुक्त होकर चाहे कही जा, तो भी इस दयाका ही पालन करना । अव तेरे और इस कायाके अलग होनेमे क्या देर हे ? इमलिये इस सत्य, पवित्र और अहिंसायुक्त जैन धर्मके जितने सिद्धात तुझसे मनन किये जा सकें उतने कर और अपने जीवकी शाति चाह। इसके सभी सिद्धांत, ज्ञानदृष्टिसे देखते हुए और सूक्ष्म वुद्धिसे विचार करते हुए सत्य ही हैं । जैसे अभयदान सवधी इसका अनुपम सिद्धात इस समय तुझे अपने इस अनुभवसे यथार्थ प्रतीत हुआ, वैसे इसके दूसरे सिद्धात भी सूक्ष्मतासे मनन करनेसे यथार्थ ही प्रतीत होगे। इसमे कुछ न्यूनाधिक है ही नही। सभी धर्मोमे दया संवधी थोडा-थोडा वोध जरूर है, परन्तु इसमे जैन तो जैन ही है। हर किसी प्रकारसे भी सूक्ष्ममे सूक्ष्म जन्तुओकी रक्षा करना, उन्हे किसी भी प्रकारसे दुख न देना ऐसे जैनके प्रवल और पवित्र सिद्धान्तोसे दूसरा कौनसा धर्म अधिक सच्चा था । तूने एकके वाद एक ऐसे अनेक धर्म अपनाये और छोडे, परतु तेरे हाथ जैन धर्म आया ही नही। रे । कहाँसे आये ? तेरे प्रचुर पुण्य के उदयके विना कहाँसे आये ? यह धर्म तो गदा है.। नही नही, म्लेच्छ जैसा
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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