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________________ [<] संगत नही है । अज्ञानयोगिता तो जबसे इस देहको धारण किया तभीसे नही होगी ऐसा लगता है । सम्यकदृष्टिपन तो जरूर सम्भव है ।" ( आक ४५० ) - इत्यादि अपनी अतरदगा सवधी अनेक उल्लेख कई पत्रामे दृष्टिगोचर होते है । स्वय अपने वारेमे ऐसा क्यो कहा ? ऐसा विकल्प, श्रीमद्जी जैसे उच्च कोटि आत्मा लिये, अनुचित है । परन्तु जैसा कि पहले कहा है कि सत्यनिरूपणके लिये यह जरूरी है, जिससे उनकी सच्ची पहचान हो और परमार्थप्रेमी जिज्ञासु जीव उनके वचनोकी आराधना करके त्रिविध तापाग्निको शात कर सके । श्रीमद्जी के साहित्यमे, जैन, वेदात आदि सप्रदायोके ग्रथोका विशाल वाचन, निदिध्यासन और अपने अतरमे ओतप्रोत आत्मानुभवका प्रवाह सहज वहता है । आत्मसमाधिके लिये जैसे उनका सारा जीवन है, वैसे ही मात्र परमार्थ कहनेके लिये उनका साहित्य है । धर्म-प्रवर्तन करनेको तीव्र करुणावृद्धि होने पर भी (आक ७०८) अपनी उस कार्यकी योग्य तैयारी न होनेसे परम सयमितभावसे उस भावनाको अपनेमे समाविष्ट कर देनेकी शक्ति - उनके अंतरकी, प्रवृत्ति - की ओर लेखनकी सत्यता प्रगट करती है । मात्मस्वरूपकी प्राप्तिके बिना जगतके जीवोके दु.खोका अत आनेवाला नही है, आत्मा जिन्होने जाना है ऐसे सत्पुरुपके सत्सगके बिना, उनकी आज्ञाके आराधनके बिना आत्मप्राप्ति होनेवाली नही हैऐसा कहकर वारवार सत्पुरुष और सत्सगकी आराधना करनेके लिये वलपूर्वक कहा है। सत्सग और सत्पुरुषके आज्ञाराधनमे विघ्नरूप मिथ्याग्रह, स्वच्छद, इद्रियविपय, कषाय, प्रमाद आदि दोषोका त्याग करनेके लिये भी उतने ही बलपूर्वक कहा है। फिर भी इस कालके जीवोकी वीर्यहीनता तथा अनाराधकता देखकर सत्सगका ही उत्कटरूपसे वर्णन किया है । आत्मप्राप्ति एक बडा विघ्न मतमतातर है । मताग्रह दूर करनेके लिये वे अपने प्रसगमे आनेवाले मुमुक्षुओको वेदात, जेन आदि भिन्न भिन्न सप्रदायोके ग्रथ पढनेका अनुरोध करते हैं । उनके विचारो और पत्रो जेन और वेदात - दोनो शैलीका दर्शन होता है । अपना अतर अनुभव प्रगट करनेके लिये उन्होने दोनों शैलीका उपयोग किया है। साथ ही यह भी स्पष्ट बताया है कि जैन या वेदातका आग्रह मोक्षका कारण नही है, परन्तु जिस प्रकारसे आत्मा आत्मभावको प्राप्त हो वही मोक्षका साधन है । वह परमतत्त्व परमसत्, सत्, परमज्ञान, आत्मा, सर्वात्मा, सत्-चित्-आनंद, हरि, पुरुषोत्तम, सिद्ध, ईश्वर आदि अनत नामोंसे कहा गया है । (आक २०९ ) " मे किसी गच्छमे नही हूँ, परन्तु आत्मामे हूँ, इसे न भूलियेगा ।" ( आक ३७) तात्पर्य कि परमार्थ - वाचन आत्मा जाननेके लिये है, आत्माको वधन होनेके लिये नही है । " वध - मोक्षको यथार्थं व्यवस्था कहने योग्य यदि किसीको हम विशेषरूपसे मानते हो तो वे श्री तीर्थंकरदेव हैं ।” (आक ३२२) यो लिखकर उन्होने श्री तीर्थंकरके वचनोकी सत्यताकी अपनी आत्मानुभवजन्य अतर प्रतीति प्रगट की है । इसके अतिरिक्त उन्होने अनेक गूढ प्रश्नोके भी सरल अर्थं समझाये है; और अपने आत्मानुभवके बलसे केवलज्ञानकी व्याख्या, अधिष्ठान आदिके संबंधमे, तथा इस कालमे मोक्ष नही होता, क्षायिक सम्यक्त्व नही होता इत्यादि मान्यताओंके सबंधमे आत्महितकारी स्पष्टीकरण किये हैं । सोलह वर्षकी लघु वयमे तीन दिनमे "मोक्षमाला" जैसी विविध विषयोका शास्त्रोक्त विवेचन करनेवाली १०८ शिक्षापाठयुक्त उत्तम पुस्तक लिखना, और सभी शास्त्रोके निचोड़रूप आत्मज्ञानप्राप्तिका
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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