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________________ परशुबन्ध का स्वरूपः परशुवृत्त में सन्धि स्थान में जो एक अक्षर है, उसे छह बार दुहरावें । श्रम और शिर में विद्यमान एक अक्षर को दो बार दुहरावे । इसी प्रकार तीन अक्षरों से युक्त ग्रीवा को भी दो बार दुहराने पर व परशुबन्ध की रचना होती है ।। यानबन्ध का स्वरूप - प्रिया को धारण करने वाले यानबन्ध मे शिखराव के दोनों ओर के ऊर्ध्व भाग मे चार - चार अक्षरों को लिखने तथा प्रवेश और निर्गम दोनों ही समय इनकी आवृत्ति करने पर यानवन्ध की रचना होती है । 2 चक्रवृत्त का स्वरूप - कवि चक्रवृत्त में छह ओर वाले चक्र मे तीन पादों को लिखकर और चतुर्थपाद को मि की रचना करता है । 3 भृंगार बन्ध का स्वरूप: भृगारबन्ध में पाद कण्ठ में दो-दो अक्षरों को मध्य मे आठ अक्षरों को और दोनों ओर अन्तिम पाद का न्यास करने पर भृगारबन्ध की रचना होती है । 4 1 निगूढपाद का स्वरूपः - चार भेद वाले निगूढ ब्रह्मदीपक बन्ध में प्रथम, द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थपाद निगूढ किया जाता है । प्रथमदि पादों की निगूढता से ही इसके चार भेद होते हैं 15 2 3 4 अचि० वही - 2 / 169 1/2 वही 2/182 1/2 वही - 2 / 183 1/2 - - - को लिखकर अरों के बीच चक्रधारा में लिखकर चक्रवृत्त 2/177 1/2
SR No.010838
Book TitleAlankar Chintamani ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArchana Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1918
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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