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________________ ७४ प्रस्तुत प्रश्न दोमें एकको देखता है। उसके लिए दोकी दुईको सहना मुश्किल होता है । इसलिए, प्रेम अंधा तो हुआ ही, लेकिन, ऐसा अंधापन श्रेयस्कर है। जिसको सामाजिक कर्तव्य-भावना कहो, वह किसी विषमतामें ऐक्यको साधनका चेष्टाका ही नाम है । प्रेम भी उसीका नाम है । तब अन्ततः ये दोनों विरोधी कैसे हो सकते हैं ? इसीसे तो आगे जाकर कहना पड़ता है कि धर्म प्रेम है। प्रश्न-अभिव्यक्तिका आनंद दो प्रकारका हो सकता है, एक इन्द्रिय-गत और दूसरा इन्द्रियातीत । और इन्द्रियातीत आनंद या तो हमारे इन्द्रियगतका प्रतिविम्ब-स्वरूप होता है या कर्त्तव्य और विवेकके पालन-स्वरूप । कहना यह है कर्त्तव्य-विवेक अथवा सौन्दर्य-आदर्शके विकासके साथ वह इन्द्रियगत आनन्द संभव नहीं है । किन्तु, मैं समझता हूँ कि संतति-उत्पादन इन्द्रिय-गत अभिव्यक्ति अथवा आनन्दके विना संभव नहीं हैं। और वह इन्द्रियगत आनन्द हमारे विकासके उस तलकी चीज है, जिसे छूट जाना है । तो क्या फिर एक समय मानव विकासकी ऐसी स्थिति नहीं आ सकती कि जब उसकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति ही उस इन्द्रियगत आनंदको पार कर जाय जो संतति-उत्पादनके लिए आवश्यक है। तब क्या मनुष्य किसी अकर्तव्यका भागी होगा? __ उत्तर-इन्द्रियोंकी अभिव्यक्ति कोई वस्तु नहीं है,-अभिव्यक्ति उन इन्द्रियोंद्वारा होती है । अर्थात् कोई आनंद ऐसा नहीं है जिसमें इन्द्रियाँ भाग न लेती हों। इसलिए, जिसको इन्द्रियातीत कहा, उसके अर्थ यह नहीं हैं कि इन्द्रियोंका उस आनंदमें असहयोग होगा, अर्थ यह है कि वह आनन्द अधिक व्यापक होगा और अधिक गहरा होगा। वह जल्दी टूटेगा नहीं और प्रतिक्रिया भी नहीं होगी । जो समय अथवा पात्रकी दृष्टि से जितना ही संकीर्ण (Exclusive) है, उसे ( समझाने के लिए ) उतना ही ऐन्द्रियिक कहना होता है। यों तो मनो-विज्ञान बतलाएगा कि उसका मूल भी इन्द्रिय-विषयोंमें न होकर कहीं गहरे (Subconscious) में होता है। ___ यह ठीक है कि संतति-उत्पादन अनिवार्यरूपसे वैषयिक कर्म है। उसमें पूर्ण अनासक्ति असंभव है। इसलिए, एक जगह जाकर प्रेमी (महाप्रेमधारी),
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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