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________________ प्रस्तुत प्रश्न यह तो ठीक मेरे अभिप्रायके विरुद्ध है । मैं तो यही कहना चाहता हूँ कि व्यक्ति अपनेको भाग्यके साथ इतना मिला दे कि वह अपने ही नहीं, समूचे भविष्यका कत्ता तक हो जाय, Man Of Destiny यानी वह मनुष्य हो जाय जा स्वयं भाग्य है । क्या ऐसा आदमी कर्महीन हो सकता है ? लेकिन, ऐसे आदमीको एक बहुत हद तक निष्काम तो होना ही पड़ेगा। यानी, उसे अपनी इच्छाओंको इस भाँति साधना होगा कि जो होनहार है, उसके साथ इच्छाएँ एकम-एक हो रहें। यह कहाँकी बात है कि भविष्यकी सत्ताको अपने हाथमें न माननसे व्यक्तिको कमहीन मानना पड़ेगा । जा भाग्यहीन हैं, वे ही कर्म-हीन होते हैं । जिन्होंने अपनी सत्ताको पृथकताको ही खो दिया है, उन-सा कर्मशाली जगतमें दूसरा काई हो भी सकता है ? प्रश्न-आपके विचारसे कर्तव्यहीका अधिकार मनुष्यको रखना चाहिए और उसीकी इललिए रक्षा भी करनी चाहिये । शेप उसे कुछ न रखना चाहिए। लेकिन, स्या जीवन कर्तव्य करते रहना ही है, संसारकी विभूतियोंके उपभोगके लिए विल्कुल भी नहीं? उत्तर-हॉ, एक रहस भोगके लिए संसार नहीं है। पर, कर्त्तव्य स्वयं ही क्या उपभोग्य नहीं है ? कत्तव्य कर्म करनेके बाद जो आनन्द व्यक्तिको प्राप्त होता है, वपथिक तृप्ति उसकी समता कर सकती है ? इसलिए, यह कहा जा सकता है कि भोग भी कर्त्तव्यमें ही समाया हुआ है। नहीं तो, विवेक-हीन होकर भोग तो दुःख ही पैदा करता है ।
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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