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________________ व्यक्ति और शासन-यंत्र ३९ •rarian उत्तर-जब तक मैं जज होनेसे बच सकता हूँ, तब तक किसीको जेल भेजनकी लाचारीसे भी बचा हुआ हूँ। क्या आप सबको ऐसा देखना चाहते हैं कि हजारों रुपये मासिक आमदनीक साथ मिलनेवाली जजीकी कुर्सी और जजीके ओहदेको वे न-कुछ के लिए छोड़ दें ? आप न चाहें, पर मैं अलबत्तह एसा चाहता हूँ। पर वैसा दिन देखना किसके नसीबमें है ? जब तक मुझपर जजीका बोझ नहीं है, तब तक मैं अगर जेलखानोके खिलाफ रहूँ तो इसमें क्या बाधा उपस्थित होती है ? बाधा तो तब हो जब कोई जज होकर दंड देनेसे जी चुराये । __यहाँ फिर उन्हीं दो शब्दोंके अन्तरको याद रखना होगा : आवश्यक और उचित । जो होनहार है, अपरिहार्य है, उसीपर औचित्यकी समाप्ति नहीं है । होनहारका विरोध जैसे मूर्खता है, वैसे ही उसके आगे आदर्शकी अभिलाप न रखना भी एक मूर्खता ही है। वह आदर्श आगे भविष्यमें रहता है । वत्तमानको भविष्यकी ओर प्रगति करनी है कि नहीं? इससे वर्तमान स्वीकार तो अवश्य होना चाहिए, पर औचित्य ( यानी भविष्य ) भी उसमें बंद है, ऐसा कैसे माना जा सकता है ? हाँ, अपराधीके लिए स्टेट आतंक स्वरूप ही है। वैसे ही जैसे कि पापीको ईश्वरका आतंक मालूम हो सकता है। इसके यह माने नहीं कि आतंकको ईश्वरका गुण माना जाय अथवा यह कि आतंक उसका स्वभाव है। बल्कि, इसका तो यह अर्थ लगाना चाहिए कि अपराधीके भीतरकी अपराध-वृत्ति ही वैसे आतंक-बोधकी मूल कारण है । साँचको जगमें आँच कहाँ है ? इससे, अगर आगमें झुलसानेकी शक्ति है, तो उसे भी दुर्गुण हम क्यों समझें? क्योंकि जो साँच नहीं है, उसीको तो आग झुलसा सकती है। इसलिए, अगर स्टेट सदोष वस्तु भी है, तो दोषीको ही वह दोष छुएगा । निर्दोष व्यक्ति स्टेटके दोषको भी मानों हर लेता है। प्रश्न--आपने कहा है कि आजके जैसे समाजमें किसी स्टंट या शासनके न होनेस धाँधली मचेगी। तो इसस, आप शासनको वर्तमानके लिए उचित समझते हैं, ऐसा अर्थ नहीं निकलता ? और क्या इससे सहयोग करनेको आप तैयार नहीं होंगे? उत्तर-फिर वही उचित और आवश्यक शब्दोंमें वज़न करनेकी मैं सलाह
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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