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________________ शासन-तंत्र-विचार २७ rrrrrrrrrrrum निरीक्षण जरूरी है, तो यह भी जरूरी है। समाजको कुछ नया सुधरा हुआ रूप पहनानेकी चिन्ता असंगत है । आत्म-मोक्षमें समाजका मोक्ष आता ही है और सच्चा समाज-सुधारक उसी राहको पकड़कर सच्चा बनेगा। प्रश्न-मुझे पूरी तृप्ति नहीं हुई । मुझे एक एक सवाल पूछने दीजिए । क्या आप समाजके वर्तमान रूप और अवस्थासे संतुष्ट हैं ? उत्तर-नहीं। प्रश्न-क्या आप उसमें कुछ ऐसी चीजें नहीं देखते जिनको सुधारा जा सकता है और सुधारना चाहिए ? क्या यह अनिवार्य नहीं है कि व्यक्ति समाज-संगठनमें त्रुटियाँ देखे और उन्हें पूरा करनेमें कटिवद्ध न हो जाय ? और अगर ऐसा व्यक्ति है, तो चाहे फिर अपने व्यक्तिगत जीवनमें वह नीति-अनीति, हिंसा या अहिंसाका कितना भी वारीक अन्वीक्षण करता रहता हो, क्या हम उसको अनुत्तरदायी नहीं कहेंगे? इस तरह शायद हम यह भी देख सकेंगे कि अहिंसाका विचार ही हमारी मदद नहीं करता, बल्कि समाजकी सामाजिक समस्याओंपर भी सोच-विचार आवश्यक है । आपके कहनेमें यह ध्वनि आती है कि वैसा सोच-विचार जरूरी नहीं है, -अपने ही पाप-पुण्यका ध्यान रखना चाहिए। उत्तर- मैं नहीं जानता कि इसका जवाब बहुत सरल दीख पड़ेगा। समाज-रचनाकी वर्तमान अवस्थासे मुझे असन्तोष है । असंतोष है, इसके माने यह कि असंतोषकी मुझमें शक्ति है । असंतोष सच्चा है, तो मैं चैनसे नहीं बैठ सकता। अब प्रश्न होगा कि मैं क्या करूँ ? कहाँसे कैसे आरंभ करूँ ? मान लीजिए, असंतोष बहुत है । फिर भी, अधीरतासे मैं काम लेना नहीं चाहता । बस, यही नहीं कि मैं कुछ करते रहनेका संतोष चाहता हूँ, बल्कि मैं जड़को पकड़ना चाहता हूँ और असंतोषसे जल्दी छुट्टी पानेको उतावला नहीं हूँ। ___ तब सवाल होगा कि वह समाज कहाँ है जिसे सुधारूँ ? • उसको पकडूं तो कैसे ? तब जान पड़ेगा कि जैसे डाक्टरके हाथमें मरीज़ रहता है, उस भाँति
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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