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________________ शासन-तंत्र-विचार www है और क्या अनीति है ? समन्वय-हीनतामें दुःख है, इससे वह अनीति भी है । बेशक, हम अंतिम हेतु ढूँढ़नेके चक्करमें भटक भी सकते हैं । ऐसे भटक जा सकते हैं कि जो उसका वास्तव अभिप्राय था, यानी समन्वय, उसको ही भूल जायँ । दर्शन-शास्त्रके नामपर अधिकांश जो कुछ प्राप्त होता है, वह ऐसी ही भटकनका इतिहास है । इसीलिए, मैं स्वयं निश्चेतन और निष्क्रिय दर्शनके हकमें नहीं हूँ। फिर भी यह स्पष्ट है कि जो व्यक्ति तत्कालकी दृष्टिसे कार्य-अकार्यका निर्णय करनेको उद्यत है, वह धीमे धीमे उस प्रश्नको स्थूलसे अधिक सूक्ष्म और concreteके बजाय abstract के रूपमें देखने लग जाय । उसकी बुद्धि लाचार करेगी कि वह जाने कि क्या होनेसे कोई कर्म दुष्कर्म और दूसरा कर्म पुण्य-कर्म हो जाता है । यह कि व्यक्ति और स्थितिका समन्वय होना चाहिए, यह निर्णय भी तो आखिर प्रश्नको स्थूलसे सूक्ष्म बनानेके उपरांत ही मानव-बुद्धि प्रस्तुत कर सकी है। इसीलिए, सच्ची बात तो यही है कि मुक्त प्राणी अपनेको, अपने 'मैं' को, सबमें मिला देता है । तब निसन्देह नीति-अनीति, कार्य-कारण, सत्-असत् , ये सब द्वित्वसे संभव बननेवाले प्रश्न उसके निकट असंभव बन जाते हैं। वह मात्र सच्चिदानंद होता है । लेकिन उससे पहले.... प्रश्न-आजकी समाजिक व्यवस्थामें जैसी आर्थिक एवं राजनीतिक जटिलताएँ उपस्थित हैं, उनमें कितने ही पुरुष अन्तरसे नैतिक होते हुए भी अनैतिकताका जरिया बने हुए हैं। समाजकी व्यवस्थाहीको बदले विना क्या यह दोष दूर हो सकता है ? उत्तर-आप सवालको क्यों गहराईपर छूते हैं ? बात असल यह है, कि, जो कुछ होता है, मैं और आप उसके करनेवाले नहीं हैं । इसलिए, उस होनेमें अपने आपमें कोई दोष नहीं है । नीति-अनीति घटनामें नहीं होती है । इसलिए, 'व्यक्ति नैतिक होनेपर भी लाचार है कि विषम समाज-रचनाका अंग होनेके कारण वह उस विषमताको अपने व्यक्तिगत अस्तित्व:मात्रसे पोषण दे,' यह कहनेका विशेष आशय नहीं बनता । मैं जितना अपने सम्बन्ध में जागरूक हूँ, उतना ही कम शिकार हूँ । व्यक्ति समस्तके प्रति, समाजके प्रति, अपना नैतिक
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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