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________________ २२४ प्रस्तुत प्रश्न Annn. . . मानवता किसी प्रलयकी ओर बढ़ती चली जा रही है। कब कहाँ टकरायगी इसका कोई भरोसा नहीं है । उत्तर-अहिंसा हमसे बाहर थोड़े हो सकती है। बाहर देखेंगे तो दीखेगा कि जीवका भोजन जीव है। बाहर तो दीखेगा ही कि सशक्तकी जीत है, अशक्तकी मौत है । यह भी दीखेगा कि जीवनका मृत्युमें अंत होता है। मौतसे आगे जीवन जा ही नहीं सकता। इस बातको झूठ कौन कहता है ? कोई इसको झूठ नहीं कह सकता । जिस तलपर बहस संभव है उस तलका सत्य वही है। बड़े बड़े योद्धा और महापुरुष मर गये । और जो आयेंगे सब कालके पेटमें समा जायँगे । काल तो यम है, अन्धकार है, और नकार है। किन्तु यह जानकर भी आज इस मिनट में जी रहा हूँ, आप जी रहे हैं, इस बातसे कैसे इन्कार किया जाय ? लाखों मरते रहे, लेकिन लाखों जनमेंगे भी और जिएंगे । मरेंगे तो मर लेंगे, लेकिन वे इतिहासको आगे बढ़ा जायँगे । क्या जीवनने कभी मौतसे हार मानी है ? और जो जीते जी खुशीसे मर गये हैं, क्या उन्होंने मौतके मुँहमें घुसकर भी जीवनकी विजयको सदाके लिए नहीं घोषित कर दिया है ? इसीसे मैं कहता हूँ कि अहिंसा बाहर नहीं मिलेगी। लेकिन जो बाहर दीखता है, उससे भी बड़ा क्या वह नहीं है जो भीतर है, इसीसे दीखता नहीं है ? वह अहिंसा भीतर है। अहिंसा भावनात्मक है । भावना कर्मकी जननी है । मैं कहता हूँ कि घोरसे घोर हिंसक कर्मके भीतर भी कोई अहिंसाकी भावना नहीं हो तो वह हो तक नहीं सकता । खूखार जानवर अपने शिकारको मारता है, लेकिन वही अपने बच्चेको क्यों प्यार करता है ? मैं कहता हूँ कि वह मारता है तो उस प्यारको सार्थक करनेके लिए ही शिकारको मारता है । बच्चेको बचानेके लिए शेरनी भी अपनेको विपतमें झोंक देती है कि नहीं? सो क्यों ? वह मारती है अपने और अपनोंको बचानेके लिए। इस मारनेकी हिंसाको भी प्रेमकी अहिंसा ही सम्भव बनाती है। लेकिन यह खतरनाक जगह है। यहाँ तर्क कहीं सब कुछको उलट-पलट न दे! उथल-पुथल हमारा इष्ट नहीं है। कहना यही है कि अगर इस घड़ी हम साँस ले रहे हैं, तो चाहे उस साँस लेनेमें भी सैकड़ों सूक्ष्म जीवोंकी हिंसा भी
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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