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________________ ८-विकासकी वास्तविकता प्रश्न-आपने कहा है कि सफलता किसी वादकी नहीं उसके समर्थककी श्रद्धा और सचाईकी होती है। क्या आप समझते हैं कि श्रद्धा सदैव प्रबल और पवित्र होती है ? या जिस कार्यपर वह केन्द्रित हो उसपर उसकी पवित्रता या प्रवलता निर्भर रहती है ? उत्तर ---श्रद्धा स्वयं शक्ति ही है। पवित्र, अपवित्र आदि मानव-रुचिअरुचिद्वारा बनाये गये विशेषण हैं। वे वैज्ञानिक नहीं हैं। प्रत्यक कामका बाहरी रूप जो भी हो, लेकिन कुंजी तो उसकी अंतरंग शक्तिमें ही माननी होगी। दो व्यक्तित्वोंके मूल्यमें जा अंतर है उसको, नहीं तो, फिर किस भाषामे कहा जायगा? एक महापुरुपका दो मिनट चुप बैठना और एक साधारण पुरुषका उतने ही समय तक चुप बैठे रहना, क्या एक-सा मूल्य रखता है ? ऊपरसे वह एक-सा है, पर उनमें आकाश-पातालका अंतर हो सकता है । जीवनका कोई विशेष क्षण अमूल्य जान पड़ता है, अन्य क्षण याद भी नहीं रहते, सो क्यों ? इसीलिए तो कि उन मूल्यवान् क्षणोंमें जीवनानुभूति खूब सजग हो उठी होगी। इसी कारण मैं यह मानता हूँ कि श्रद्धाकी शक्ति निम्नको उच्च बना देती है। पत्थरकी मूर्तिको परमात्मा बना देनेवाली शक्ति भक्तकी भक्ति ही तो है। भक्ति शायद आजकल समझमें नहीं आयगी। लेकिन एक कपड़े के टुकड़े को झंडा कहकर इतनी शक्ति कौन दे देता है कि हजारों देशवासी उसपर कुर्बान हो जायँ ? वह शक्ति कपड़ेके टुकड़े की है या श्रद्धाकी ? कपड़ा कुछ नहीं है, फिर भी झंडा सब कुछ बन जाता है, सो क्यों ? क्या श्रद्धाके कारण ही नहीं ? इसीसे किसपर श्रद्धा है, इससे अधिक यह महत्त्वपूर्ण बन जाता है कि कितनी श्रद्धा है। सत्य कहाँ नहीं है ? श्रद्धाकी दृष्टि जहाँ पड़ती है वहीं सत्यको ऊपर ले आती है। प्रश्न-अगर श्रद्धामें यह वल है, तो क्या एक मामूली या यों कहिए कि एक अनैतिक कार्य भी श्रद्धाके कारण नैतिक और उचित वन जाता है?
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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