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________________ ५-समाजके' वाद प्रश्न--धनिक और निर्धन इन दो श्रेणियों का प्रत्यक्ष सम्बन्ध मालिक और नौकरके रूपमें आता है। और आप पहले कह चुके हैं कि यह संबंध दूर होना चाहिए । साम्यवादी लोगश्रेणी-विग्रहका आधार लेकर अपने तरीकेसे यह करना चाहते हैं। इसमें अहिंसाके सिद्धांतका विरोध है। आप अहिंसाके सिद्धांतको सुरक्षित रखते हुए मालिक-मजूर-संबंधको मिटानेका कौन-सा उपाय संभव मानते हैं? उत्तर--मालिक और नौकरका संबंध भावनाश्रित है। धनका होना न होना परिस्थितिगत है । भावना परिस्थितिसे कोई बिलकुल अलग चीज़ नहीं है। इसी दृष्टिसे अर्थका विषम विभाजन विचारणीय विषय बनता है और उसी कारण उस विभाजनमें यथासाध्य समता लानेका प्रयत्न करना चाहिए । लेकिन ध्यान रहे कि मूल प्रश्न मानम-सम्बंधोंके स्वच्छ करनेका है। प्रश्न यह नहीं है कि मेरे पास कितना है अथवा दूसरेके पास कितना है । प्रश्न यह है कि हममें परस्पर सद्भावना है कि नहीं । एक दूसरेकी आर्थिक स्थितिमें बहुत विषमता होनेपर वैसी सद्भावनाकी संभावना कम हो जाती है । इसीसे वह बात बार बार सोचनी पड़ती है। अतः आवश्यक है कि हम आरंभसे ही मूल बातको पकड़ें तथा व्यक्तिगत व्यवहारमें दूसरेके साथ अम-संबंधको हम वर्जनीय ठहराकर चलें। किसीके मालिक स्वयं अपनेको न समझें, न किसीके गुलाम बनकर दूसरेको ऐसा समझने का मौका दें। मैं समझता हूँ कि अगर प्रश्न सचमुच आपसी व्यवहारमें एकता और हित-भावनाके प्रचारमा है, तो यही पद्धति उसके समाधानकी हा सकती है कि हम उस एकता और हित-भावनाको आजसे ही अपना मंत्र बना लें । अन्यथा मालिक कहे जानेवाले आदमीका धन छीनकर गुलाम कहे जानेवाले आदमियों में बराबर बराबर बाँट देनेसे सब मामला सुलझा जायगा, यह समझना भूल है । आदमीकी हविस और उसका प्रमाद फिर वैसी विषमता पैदा कर देंगे। असलमें अर्थ विभाजनपर अत्यधिक ध्यान रखनेसे तो उस अर्थका मूल्य बढ़ेगा और उसके कारण रोग भी बढ़ता हुआ दिखाई देगा।
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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