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________________ औद्योगिक विकास : शासन-यंत्र १९७ श्रमी और उसके श्रम के बीच किसी भीमाकृति यंत्रको न लानेसे प्राकृतिक असुविधाओंका मुकाबला करने की आदमीकी सामर्थ्य किस तरह कम हो जाती है ? बल्कि इस तरह तो वह सामर्थ्य बढ़ ही जायगी । पानीको स्वच्छ करनेवाली मशीनका कौन विरोध करता है ? ऐसे ही नहरें भी बनाई जायँगी, और भी इस तरहके सार्वजनिक हित के सब काम होंगे जिनमें बड़े यंत्र जरूरी होंगे । किन्तु श्रमीका श्रम उससे न छिन पायगा । प्रश्न - सार्वजनिक सहयोगकी बात आपने कही । लेकिन इस बात की सफलता में मुझे बहुत संदेह है । क्या यह अच्छा न होगा कि ज़मीन हर एक किसानकी हो, जो यंत्र वह स्वयं चला सके और जिनसे उसे लाभ हो सकता है उनका वह उपयोग करे और जो सार्वजनिक हितकी योजनाएँ हों वे सब सरकारद्वारा संचालित की जायँ । इसमें फिर नौकर और मालिकका संबंध आयगा; लेकिन, राज्यका नौकर होना तो बुरी बात नहीं है । और अगर मालिकनौकरका संबंध अन्य सव क्षेत्रोंसे निकल भी जाय, तो भी राज्यके नौकर तो जरूर ही होंगे । वे तो न निकाले जा सकेंगे ? उत्तर- स्टेट अपने आपमें तो कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है न ? वह सबकी है और किसीकी नहीं है । इसलिए यह तो आ ही जाता है कि जबतक लोगों में सार्वजनिक हितको अपना हित मानने और तदर्थ परस्पर सहयोग भावसे मिलने की सहज वृत्ति न हो जाय, तबतक स्टेट नामक संस्थाको वैसा सहयोग संगठित करना होगा । यह बात ठीक है कि सार्वजनिक सेवक राज्यकर्मचारी ही हो सकता है। उससे भी ज़्यादह यह ठीक है कि असल में प्रत्येक राज्यकर्मचारी प्रजा-सेवक ही है । राज्यका पैसा प्रजाहीका पैसा है । इसलिए स्टेटका नौकर होने का अर्थ तो, सच पूछा जाय, जनसेवक होना ही है । इसलिए वह ग़लत भी नहीं है । पर ऐसा होता नहीं है, अथवा बहुत कम होता है । राज्यकर्मचारी अपनेको अफसरका नौकर और प्रजाका अफ़सर मानते हैं, जैसे प्रजासे भिन्न भी राज्य की कोई सत्ता हो ! असल में तो स्टेट, जो शासन सबके अंदर होना चाहिए किन्तु नहीं है, उसीका बाहरी रूप है । भीतरका शासन ज्यों ज्यों जागता जायगा, त्यों त्यों ही बाहरका तंत्रीय शासन, यानी स्टेट, व्यर्थ पड़कर निश्शेष होता जायगा ।
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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