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________________ १-हमारी समस्याएँ और धर्म प्रश्न-इतने धर्म आदि होते हुए भी आज मानव-समाजमें इतनी विषमता और असंतोष क्यों है ? धर्म-प्रवर्तकोंका प्रयत्न तो यही था न कि मानव-जातिको सुख शान्ति प्राप्त हो? उत्तर-यह तो आसानीसे कहा जा सकता है कि धर्म-प्रवर्तकोंने जो धर्म चलाया, अनुयायियोंने आचरण तदनुकूल नहीं किया। उन्होंने धर्मको अपने संप्रदायके लिए एक नारा ही मान लिया । यह जब कि एक कारण कहा जा सकता है तब सच्ची बात तो यह है कि अशांतिका और विषमताका बिल्कुल अंत तो मुक्तिमें ही होनेवाला है। अगर वर्तमानसे हमें पूरा संतोष हो तो भविष्यके लिए हम शेष क्यों रहें ? इसलिए जब तक काल है, जब तक गति है, तब तक हमारी दुनियामें असंतोषके लिए कारण भी वर्तमान हैं । जीवनकी भी और कोई परिभाषा नहीं है, गतिके अर्थमें ही हम उसे समझ सकते हैं । हाँ, उस गतिमें संगति अवश्य है । उसीको विकास कह लीजिए। प्रश्न-क्या इस उत्तरमें निराशा नहीं है और क्या इससे निराशावादका जन्म नहीं हो सकता ? उत्तर-लेकिन मरीचिका (=utopia) और मोह (=Romance) पर आश्रित आशावादिता भी तो कोई बहुत अच्छी चीज़ नहीं है । जो उस प्रकारकी आंतिम स्वीकृति, जिसको कि भाग्य अथवा किसी महासत्ताकी स्वीकृति कहनी चाहिए, उसके इंकारपर अपनेको कायम रखती है वह आशावादिता अधिक प्रेरक नहीं हो पाती । वह अन्ततः एक छल साबित होती है।
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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