SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिभा १७५ आदमी समझने लगता है कि उसने पा लिया है, और पाते रहनेका उसका प्रयत्न शिथिल पड़ जाता है । उसकी प्राण-शक्तिकी बेचैनी मूर्च्छित हो जाती है । वह विद्वान् इतना हो जाता है कि शोधक कम रह जाता है, ऐसा ज्ञानी जो जिज्ञासु नहीं है । अब मानो वह यात्री ही नहीं, रुका- घिरा गृहस्थी है। लेकिन याद रहना चाहिए कि घर कहीं कोई बंद नहीं हो सकता । चला चली लगी है और पहुँचना दूर दीवारें झूठ हैं और एक दिन विस्तृति का सामना करना ही होगा । प्रश्न- - क्या आप मानते हैं कि खास आदमियोंमें खास कार्य कार्य करनेका शुरू से ही कुछ गुन होता है ? क्या यह समाजके हित में न होगा कि उन उन व्यक्तियोंको वह कार्य ही एकांततः दिया जाय जो उन्हें रखा है और जिसमें उन्हें रस है ? उत्तर—मानता हूँ | लेकिन 'एकांततः ' पर काफी से ज़्यादा जोर पड़ा कि अर्थ भी होने लगेगा । आज कल-कारखानों में एक छोटी-सी चीज़के तैयार करनेकी प्रक्रिया विविध अंग विविध कारीगरों में बँट जाते हैं । एक श्रेणीके मजूरोंके जिम्मे उसका बहुत थोड़ा-सा अंश आता है । जैसे कि लीजिए, रोज़ काम I आनेवाली आलपिन को ही ले लीजिए। हो सकता है कि कुछ लोग पिनों के ऊपर के सिरोको बनाते बनाते उस काम में विशेष चतुर हो गये हों । लेकिन तब पिनकी नोकको वे नहीं जानेंगे, उसके बनानेकी कल्पना ही उनमे नहीं होगी । न समूचे पिनसे उन्हें विशेष सरोकार जान पड़ेगा । बस, उनकी निगाह पिनके सिरों में ही अटकी रहेगी | बरसों बरस उसी एक कामको करते रहनेका परिणाम यह तो हो सकता है कि वे आलपिनो के सिरोंके विशेषज्ञ हो जायें, लेकिन इस प्रकार क्या वे उन्नत नागरिक भी हो सकते हैं ? इसीलिए आपके 'एकांततः ' शब्द के लिए मेरे मन में उत्साह नहीं है । प्रश्न - लेकिन विशेषज्ञताके साथ, जिसे हम उपयोगी मानते हैं, एकांतता न आये, यह कैसे हो सकता है ? उत्तर- - अगर नहीं हो सकता तो मुझे विशेषज्ञता हासिल करने की ज़िद भी नहीं हो सकती । लेकिन ऊपर बीमार बच्चे और कैल्शियमकी बात कही । इसी तरह विशेषज्ञताकी भी ज़रूरत रहेगी और विशेषज्ञ भी रहेंगे । उनको अनावश्यक बतानेका मेरा अभिप्राय नहीं है । यहाँ हम जीवनकी परिपूर्णताका तत्त्व जानना चाह रहे थे न ? सो विशेज्ञता परिपूर्णता नहीं है, वह तो खंडकी अभिज्ञता है, - यह हमको विस्मरण न करना चाहिए ।
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy