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________________ मजूर और मालिक १२९ मौका दे सकेगी? अथवा कि उसे बिल्कुल तोड़-फोड़कर उस नई व्यवस्थाकी नींव डालनी होगी? उत्तर-नींव तोड़ने-फोड़नेसे नहीं पड़ेगी । अतः तोड़ने-फोड़नेकी वृत्ति हितकर नहीं है। लेकिन धरती से उगता हुआ नया किल्ला भी यदि धरतीको फोड़ता हुआ उगता है तो क्या यह कहा जा सकता है कि वह धरतीको फोड़ना चाहता है ? ऐसा जान पड़ता है कि माना धरती स्वयं उस किल्लेके जीवनको संभव बनाने के लिए अवकाश दे देती है । वह किल्ला ही फिर वृक्ष हो जाता है । इस भांति जान-बूझकर किसीको भी तोड़ने के लिए प्रवृत्ति करने की आवश्यकता नहीं है। सचाई पर जीना ही झुठको काफी चुनौती है। इसलिए यदि आगे कभी सोसायटीमें हम इस प्रकारकी अहिंसा-पूर्ण शासन-व्यवस्थाको संभव बना हुआ देखना चाहते हैं, तो उपाय है कि हम स्वयं अपने संबंधोंमें अहिंसाका व्यवहार आरम्भ कर दें । हिंसाके और आतंकके आधारपर खड़ी संस्थाएँ इस तरह स्वयं निष्प्राण होकर मुझा जायँगी और समाज-व्यवस्थामें कोई भंग भी न प्रतीत होगा; क्योंकि तब तक अहिंसात्मक संस्थाएं उनकी जगह लेनेको बन चुकी होंगी। आधुनिक भाषामें कहिए कि शक्तिका हस्तांतरित होना ( = transierence Of pow:1' ) सहज भावस घटित हो जायगा। प्रश्न-लेकिन जो हिंसाकी संस्थाएँ किसी एक वर्ग अथवा दलकी सत्ताके लिए प्राण-स्वरूप हैं, क्या हम उम्मेद करें कि वे उन्हें मुरझा जाने देंगे? उत्तर-क्या हम चारों ओर नहीं देखते कि आजका सप्राण आदमी कल निष्प्राण भी हो जाता है, यानी मर जाता है ? क्या कोई स्वयं मरना चाहता है ? इसलिए हिंसा-समर्थक संस्थाओं के समर्थक अपनी इच्छासे उन्हें मरने देंगे, यह कौन कहता है ? फिर भी, एक दिन उन्हें नष्ट होना होगा। उन संस्थाओंका नाश तो इसी में प्रमाणित हुआ रखा है कि वे स्वयं नाश करनेमें, यानी हिंसामें, विश्वास रखती हैं। विजय सत्यकी होती है, हिंसाकी विजय नहीं होती । पर यह तो ठीक ही है कि अनायास हमारे सामाजिक जीवन-व्यापारमेंसे हिंसा लुप्त हो जानेवाली नहीं है। इसलिए निरन्तर धर्म-युद्धकी जरूरत है। 'धर्म'के साथ 'युद्ध' लगाया है,—इसके माने ही हैं कि बहुत विरोध होगा जिससे धर्मको मारेचा लेना होगा। मैं मानता हूँ कि धर्मकी यह विजय यो सहज ही नहीं हो जायगी। वह बहुत कुछ बलि लेगी। लेकिन, बलि किसी दूसरेकी नहीं, हमारी ही ।
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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