SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्त्री और पुरुष ११५ ध्यान, भजन, मनन, साधन अथवा अन्य विधियोंद्वारा व्यक्ति उसी आदर्शको सगुण-साकार रूप देता है । सगुण आराधनासे वह शक्ति प्राप्त करता और प्रगति करता है। इसमें नुस्खेका प्रश्न नहीं । यह तो धर्म है, यानी वस्तु-स्वभाव है । होता ही यह है । हर मामले में, हर व्यक्तिके साथ, ऐसा होता है। ___ 'निर्गुणके भजनसे उन आडम्बर-पूर्ण कृत्योंका अर्थ तो कहीं नहीं समझ लिया गया है जो धार्मिक कहे जाते हैं, और जिनकी हिन्दुस्तानमें और अन्य देशोंमें भी बहुलता दीखती है ? वह मतलब नहीं है। जिसको सम्पूर्ण व्यक्तित्वके जोरसे उपलब्ध करने के निमित्त हम जी रहे हैं, उसको शब्दोंद्वारा ऐसा या वैसा आकार देना कहाँतक उचित है, कहाँ तक वह संभव भी है, यह समझनेकी,-अनुभव करनेकी, बात है। और फिर उन भिन्न भिन्न आकार-धारणाओंपर विवाद और विग्रह भी होते हैं। वे विग्रह इसीलिए संभव होते हैं कि यह भुला दिया जाता है कि वे धारणाएँ यदि सत्य हैं तो इसीलिये सत्य हैं कि वे किसी अमूर्तकी मूर्त प्रतीक हैं । अमूर्त्तसे विमुखता धारण की कि मूर्त झूठ हुआ। मैं नहीं जानता कि मानवोपयोगी कौन-सा सामाजिक प्रयत्न मूर्त्तद्वारा अमूर्त भजनके विरुद्ध पड़ता है । क्यों न समझा जाय कि आदमीकी सब चेष्टाएँ, सब प्रयत्न, अंतमें उसी एक उपलब्धिकी ओर उन्मुख हैं। जिसको सामाजिक क्रान्ति कहो वह भी, और जिसे सामाजिक क्रमोदय कहो यह भी, सब उसी मुक्ति-मार्गमें अपने अपने क्रमसे उपस्थित होते हैं ।
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy