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________________ प्रस्तुत प्रश्न और पाना आरंभ नहीं कर देता । जब बालक औरोंसे मिलने जुलने लगे, समाझिये कि पाँचसे सात वषकी अवस्थाके मध्य, तब वह फिर कुछ सार्वजनिक रूपमें सीखनेका पात्र हो जाता है । यानी अब उसे परिवारके साथ साथ एक बड़े समुदायके बीच में रहनेका अवसर मिलना चाहिये । उसीको कहिए पाठशाला अथवा स्कूल । शायद ऐसी शिक्षाका विचार करते समय हमारे मनमें दो ही सत्ताओका विचार रहता है : एक स्टेट, दूसरा बालकका अभिभावक । लेकिन मेरे खयालमें स्टेटस इधर और परिवारसे आगे बढ़कर और भी सांघिक संस्थाएँ (=Publi: Tustitutions) होती हैं । वे अधिक आदर्श-प्राण होती हैं, क्योंकि शासन-चिंतासे वे मुक्त होती हैं । मैं समझता हूँ, सबसे अच्छी बात तो यह हो कि ऐसे सार्वजानिक हितका ध्यान रखनेवाले निस्पृह लोग अथवा उनका संघ अपने आपमें शिक्षण संस्थाओके केन्द्र बन जाए । ऐसा होनेतक स्पाट रूपमें स्टेटका कर्तव्य होता ही है कि वह बच्चोंकी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था करे । वह शिक्षा अनिवार्य और निःशुल्क होनी चाहिये। 'अनिवार्य से यह आशय नहीं कि कोई बच्चा सरकारी स्कुलके अतिरिक्त और किसी प्रकार कुछ साख न सके, अथवा कि स्वाधीन प्रयोगका अवकाश न रह पाए । आशय यही कि कोई बालक शिक्षासे वंचित न रहने पावे । प्रश्न-किन्हीं अभिभावकोंके और राष्ट्रके -स्टेटके) जीवनसंबंधी आदर्शमं विचार भेद हो सकता है। उस समय बच्चोंके जीवननिर्माणका अधिकार अभिभावकोंका है अथवा स्टेटको ? उत्तर-अक : वस्था तक अभिभावकोसे बच्चाकी जिम्मेदारी नहीं छीनी जा सकती। कुछ आगे जाकर बेशक राष्ट्र उस ज़िम्मेदारीको बँटाने लगता है। अभिभावकोंकी ओरसे यह खतरा है कि वह व्यक्तिगत अथवा परिवार-गत स्वार्थों की परिभाषामें बालकक भविष्यको देखना और बाँधना चाहने लगें । तब राष्ट्रकी आरसे भी यह आशंका है कि वह अपनी पर-राष्ट्र-नीतिकी वेदीपर उपयुक्त बलिपात्र बननेकी आशा बच्चोंसे रक्खें । दोनों तरफ़ ही अनिष्टका खतरा है, इसलिये लगे हाथ यह नहीं कहा जा सकता कि बच्चे किसीकी मिल्कियत हैं, अभिभावकोंकी अथवा कि सरकारकी। असलमें तो बच्च मिल्कियत किसीकी नहीं हैं, क्यों कि वे चैतन्य प्राणी हैं। अतः उनकी शिक्षाका बन्दोबस्त कुछ
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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