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________________ भगवन् भगवन् विजय हो बन्धुता की प्रेम का जयकार हो भगवन् । नहीं हो अब दुखी कोई परस्पर प्यार हो भगवन् ॥ [२] गरीबी रह नहीं पाय, अमौरी मे न वनमद हो । बढे सम्पत्ति अब सब की बढ़ा व्यापार हो भगवन् । अविद्या का अंधेरा यह, जगत मे रह नहीं पात्र । बढे सज्जान मानव ज्ञानका आगार हा भगवन् । [४] बने ज्ञानी सभी मानव सदाचारी विनय-धारी । न कोरे फेशनबुल या रंगोले यार हो भगवन् । [५] 'जरासी ओपडी भी हो सढा मदिर सुशिक्षा का । दया से पूर्ण सच्ची सभ्यता का द्वार हो भगवन् । अविद्या मूर्ति महिलाएँ कही भी रह नही पाये । बने ये भारती देवी कि स्वर्गागार हो भगवन् । [७] अभी सद्धर्म की नौका भँवर मे खा रही चक्कर । रखें उत्साह बल ऐसा कि बेडा पार हो भगवन् ।।
SR No.010833
Book TitleSatya Sangit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1938
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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