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________________ ८०] आत्म कथा - दूसरी बात यह है कि वर को पात्र कहना और कन्या को देय बताना नारीव का अपमान है । नारी धन पैसे की तरह या गाय भैंस की तरह देने लेने की चीज़ नहीं है । विवाह वर कन्या का परस्पर सम्बन्ध है, पिता उसका प्रबन्धक है-दाता नहीं । नारीको दान की चीज़ मान लेने पर वह बेचने-खरीदने आदि की चीज़ बन जायगी वह मनुष्य न रहेगी । इसलिये कन्यादान और पात्र आदि की बात व्यर्थ है। - असल बात यह है कि जब लोग लड़ झगडकर, मारपीट कर और युद्ध में जीतकर कन्या पक्ष को दवा लेते थे और सुलह को पक्की रखने के लिये विजित शत्रु की कन्या से शादी कर लेते थे तब वह विजित शत्रु विजयी सम्राट की पूजा विनय आदि करता था । वर की पादपूजा. इसी प्रथा का भग्नावशेष है । परन्तु में तो ऐसा वीर था नहीं, और होता भी तो शायद इस प्रकार कन्यापक्ष का अपमान कर के वीरता का प्रदर्शन न करता नारी का अपमान करने वाले बर्बरता के ये स्मारक नष्ट होना चाहिये। .. विवाह में कुछ रीतिरिवाज़ कन्याका अपमान करनेवाले भी थे। जैसे वर जिस थाली में भोजन कर जाये उसी गूंठी थाली में वही गूंठा अन्न कन्या को खिलाया जाय । निःसन्देह गह प्रवन्ध की दृष्टिसे कहीं कहीं घरों में ऐसा होता है शायद उसी का अभ्यास कराने के लिये पुरखों ने वह रिवाज़ बनाया होगा । इस दृष्टिसे शायद किसी समय उस की उपयोगिता होगी पर आज तो यह अपमान-प्रदर्शन न होना चाहिये । हाँ एकत्वप्रदर्शन के लिये दोनों को एक साथ एक ही थाली में भोजन कराया जाय तो ठीक भी है।
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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