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________________ ७४ ] आत्म-कथा बारातियों में मुझे बहुत सिखाया पर मैंने कह दिया कि जिसको जो कुछ देना हो दे, न देना हो न दे, मैं किसी को पकडूंगा नहीं। मैं क्या भिखमंगा. हूँ जो किसी से भीख माँगूंगा या डाकूहूं जो किसी को संताऊँगा । वारानियों ने कहा-दरबारी बहुत मुर्ख है, मैं चुप रहां पर मन ही मन कहा ऐसी मूर्खता पर मैं बड़ी से बड़ी पंडिताई न्यौछावर कर सकता हूँ। . परन्तु पलकाचार में किसी को पकड़ा नहीं इससे मेरा कुछ नुकसान नहीं हुआ । मेरे ससुर साहिब ने भीतर जाकर सब स्त्रियों से कह दिया कि जिसको जो कुछ देना हो पहिले देदेना लड़का किसी को पकड़ता नहीं है । इसलिये जो कुछ मिलना था करीव । करीव वह मिल ही गया । अन्यथा रिवाज़ ऐसा है कि जिसे पांच रुपया देना है वह एक रुपया से शुरुआत करता है और धीरे 'धारे, चार पांच तक पहुंचता है। - . इसी प्रकार जब वारात को भोजन का निमन्त्रण मिला और दल्हा. को लेकर सब लोग भोजन को वैठे तब थाली परोसी जाने पर सब लोग तो भोजन करने लगे पर मुझसे कह दिया कि तुम भोजन मत करना, सौ रुपये की अच्छी भैंस लेकर भोजन करना । जबकि ससुराल वाले कह रहे थे कि आप भोजन करो जो कुछ देना है वह हम जरूर दे देंगे। इस समयं याद नहीं आ रहा है कि उनने क्या दिया क्या नहीं दिया, पर मैं रुपये के लिये रुका नहीं, मैंने धीरे से किन्तु इंटता के साथ जो कुछ कहा उसका सार यह है कि मैं मुड़चिड़ा
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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