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________________ ६६. आत्म कथा जीवन में सत्यदर्शन कर सका, पर इससे मेरी शारीरिक हानि कैसी हुई, चार पांचवर्ष तक मुझे कैसी घोर मानसिक वेदना सहना .पड़ी, किस प्रकार गरीवी की ज्वालाओं को ईंधन मिला, किस प्रकार शिक्षण नष्ट होते होते बाल बाल बचा, इन सब बातों की जब याद आती है तब आज पच्चीस वर्ष बाद भी सिहर उठता हूँ . और तुरन्त ही उस महाशाक्त को धन्यवाद देता हूँ जिसकी कृपा से उन विपत्ति और विनों से बचकर आज की हालत में आ सका हूँ। बुआ के देहान्त के बाद पिताजी अलग रहने ही लगे थे । मैं सागर पाठशाला में पढ़ता था। इस बीच पिताजी लम्बे समय के लिये बीमार पडे, उस समय वे सोचने लगे कि अगर मैं मर जाऊँ तो मेरी लड़का विलकुल अनाथ हो जायगा । उसका पालनपोषण कौन करेगा ? कौन उसकी मदद करेगा, धनहीन और कुंटुम्ब- हीन लड़के की शादी भी कौन करेगा ? शायद जन्म भर कुँवारा ही रह जाय इसलिये बीमारी से उठते ही मैं अपने लड़के · की शादी कर दूंगा । उनकी इस हितैषिता का फल यह दुआ कि मुझे वाल-विवाह की वेदी पर चढ़ना पड़ा। अभी कुछ समय पहिले इंग्लैंड में एक घटना हुई थी कि एक · वृद्धाने अपने बहुत बीमार होने पर यह विचार किया कि इस असमर्थ बच्चे का पालन कौन करेगा यह तो असहाय बनकर दुर्दशाग्रस्त होकर मर जायगा । बच्चे की उस दुर्दशा के चित्र से वृद्धा रोने लगी और अंत में उसने करुणांवश या मोहवश बच्चे को
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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