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________________ ६४) आत्म कथा .: चौका पंथ--सागर पाठशाला में चौके का विचार तो रक्खा जाता था जोकि थोड़ा बहुत समझ में आता था पर वहां जो ब्राह्मणं अध्यापक थे उनका चौकांपंथ बिलकुलं समझ में नहीं आता था । हमारे नैयायिक जी मैथुलदेश निवासी थे। वहां ब्राह्मणं लोग मांस मछली का शाक, केंचुए झिंगुर आदि बरसाती कीड़ों का अचार तक खाते हैं। हमारे नैयायिकजी ने जलचरों के वनस्पति सूचक नाम : रख छोड़े थे। जैसे मछली को वे जलसेम कहते थे, इसी प्रकार जलतोरई जलककड़ी आदि बहुत से नाम थे। ऐसे सर्वभक्षी पंडितजी चौके का बड़ा विचार करते थे। मुझे कभी कभी उनके चौके में लकड़ी ले जाना पड़ती थी । एक दिन. लकड़ी ले जाते समय मेरा पैर चौके की किनारके कुछ भीतर पड़ गया। उस समय उनकी रसोई बन रही थी पर मेरा पैर पड़ने से सब रसोई अशुद्ध हो गई। मुझे काफी गालियाँ खाना पड़ी। मुझे इन सब बातों के रंज की अपेक्षा इस बात को आश्चय ही अधिक था कि पेट में तो मुर्दा मांस तक चला जाता है. उससे मुँह और पेट अशुद्ध नहीं होता और चौके में मेरा पैर पड़ जाने से सब अशुद्ध हो गया। इतने बड़े नैयायिकजी इतना न्याय क्यों नहीं समझते। - 'चौकापंथ में शुद्धि अशुद्धि से कोई मतलब नहीं था। एक तरह का जातिमद; और अमुक अंश में व्यक्तित्वमद ही इसके मूल में था और रहता है। व्यक्तित्वमंद की भी एक बात याद आती है। एकबार प्रवास में, जब 'कि सागरपाठशाला के विद्यार्थी और कर्मचारी बरखासागर से बैलंगाड़ियों में लौट रहे थे, रास्तेमें एक जगह रोटी बनी। उस समय एक विद्यार्थी के हाथ से जूंठी' थाली
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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