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________________ .... . .. संस्परण का वेदला किसी दूसरे उपाय से अवश्य लेना चाहिये इसी चिन्तो .. में घुलने लगा। अन्त में मैंने उसकी निन्दा में कुछ दोहे बनाये। दोहे क्या थे गालियों की तुकावन्दी थी। दोहे हो गये पच्चीस; और नाम रक्खा गया दुष्टपच्चीसी । बस मैं एक एक विद्यार्थी को एकान्त . में ले जाता और उस दुष्टपच्चीसी सुनाता । विद्यार्थी बहुत खुश होते । इसलिये नहीं कि मैं कवि बन गया था किन्तु इसलिये कि निन्दा के लिये उन्हें खुराक मिली थी । निन्दकता मनुष्य के स्वभाव में शामिल हो गई है. । निन्दा से. मनुष्य को कुछ मिलता तो है नहीं, फिर भी मनुष्य परनिन्दा से खुश होता है, मित्र कहलाने वालों की निंदा से भी बहुत खुश होता है इसका कारण सिर्फ यही कहा जा सकता है कि परनिन्दा से मनुष्य · को कल्पित सन्तोष मिलता है, उसके अहंकार को खुराक मिलती है । वह सोच लेता, है कि देग्गे मेरा साथी इस प्रकार दूसरों से निंदनीय है जब कि मैं नहीं हूं इस प्रकार में महान है । खैरं, दुष्टपच्चीसी सुनकर लड़के खुश होते; जिसके लिये मैंने दुष्टपच्चीसी बनाई थी उसे चिढ़ाते और मेरे मन में सन्तोष होता कि अच्छी तरह बदला लिया जा रहा है। चार छः दिन बाद उसने मेरे पाकिट में. सें दुष्टपच्चीसी निकाल कर उसकी नकल करके एक अध्यापक को देदी, पर इसं. बात का मुझे पता न लगा क्योंकि मेरी डायरी . जहां की तहाँ. रक्खी थी । उस अध्यापक ने मुझसे इस दुष्टता का कारण पूछा। पहिले तो मैं सहमा, पर वे अध्यापक नये थे, उम्र भी कम थी, उनका संकोच मैं कम करता था इसलिये दृढ़ता से उत्तर दियाआप ही बताइये मैं क्या करता ? इनने मुझे निरपराध धक्का मारा,
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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