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________________ आत्म कथा [९] पाठशाला का ज्ञानदान. इसमें कोई सन्देह नहीं कि सागर पाठशाला ने मेरा बड़ा उपकार किया है । मेरे जीवन की धारा वदलदी है । फिर भी इतना कहना ही पड़ता है कि उसका शिक्षणक्रम बड़ा सदोष था । पहिले पहिले सात आठ महीने तक मुझ से अमरकोष ही रटाया गया, फिर सात आठ-महीने तक कातंत्र व्याकरण चला, फिर लघुकौमुदी चली | साथ के लिये दूसरा कोई विषय न था । इतिहास, कान्य अंग्रेजी आदि का अभ्यास तो दूर की बात, पर जिस धर्मशिक्षण के लिये पाठशाला थी वह धर्मशिक्षण भी न मिलता था । ब्राह्मण अध्यापक जैनधर्म के शिक्षण के विरोधी, और पं. गणेशप्रसादजी ब्राह्मण अध्यापकों के हाथ की कठपुतली, इसलिये धर्मशास्त्र का शिक्षण बन्द था .! इधर कोष और व्याकरण रटना मेरे लिये अत्यन्त अरुचिकर था । इस प्रकार तीन चार वर्ष में न तो मैं व्याकरण पूरा पढ़ पाया न अन्य किसी विषय का अध्ययन हुआ। संसर्ग के कारणं कुछ पुरानेपन के संस्कार जोर पकड़ गये । पर न मालूम वह कौनसी शक्ति थी जो मुझे बाहर फैलाना चाहती थी। पाठशाला की पढ़ाई में मैं असन्तुष्ट रहता था । इसलिये ज्ञान की भूख बुझाने के लिये मैंने इधर उधर खोज शुरु कर दी। सागर में एक सरस्वती वाचनालय था । शाम को वहीं जाने लंगी । पुस्तकें घर लाने के लिये कुछ डिपाजिट जमा करना पड़ती थी पर रुपया दो रुपया भी डिपाजिट जमा कर सकना मेरे वश के बाहर था इसलिये रोटी खाकर जल्दी जल्दी वाचनालय पहुँचता ।
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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