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________________ धर्म-शिक्षण [२१ शास्त्र के विषय में मैं ऐसा ही अन्ध-श्रद्धालु था । इसी अन्धश्रद्धा के कारण १३-१४ वर्ष की उम्र तक मेरा वह अज्ञान बना रहा । यद्यपि शास्त्रों के विषय में ऐसी अन्धश्रद्धा के कारण मैं व्यवहारशून्य बन गया था पर बहुत सी बातों में शास्त्रों का अच्छा परिणाम भी हुआ। जैन पद्मपुराण में मुनियों का जिक्र आता था कि अमुक मुनि ने तपस्या की, उपसर्ग जीते और केवलज्ञान पाया देवेन्द्रादि आये । मैं सोचता था आज हम उन्हीं मुनियों की पूजा करते हैं । एक दिन वे भी साधारण · गृहस्थ थे । यदि साधारण __गृहस्थ त्याग और तप से भगवान बन सकता है तो मैं क्यों नहीं ___ बन सकता, मैं भी भगवान बनूंगा। पर अवसर्पिणीवाद इस विचार-धारा को टक्कर मारता था । ___ इसलिये मैं सोचता था कि उनके बड़े शरीर थे और मजबूत थे, वह चौथा काल था जहां चाहे केवली और ऋद्धिधारी मुनियों . के दर्शन होते थे आज कल यह सब कहां है ? इसलिये मैं क्या कर सकूँगा ? इस प्रकार धर्म-शास्त्र की एक बात जहां मुझे उन्नति करने के लिये उत्साहित करती वहां पंचम काल चौथेकाल का भेद-अवसर्पिणीवाद-मेरे उत्साह पर पानी फेर देता। . फिर भी इतना प्रभाव तो पड़ ही जाता था कि मैं भी कुछ न कुछ उन्नति कर सकता हूँ। पंचम काल में मोक्ष का द्वार बन्द है इसलिये केवल- ज्ञान न पा सकूँगा उसके लिये विदेहों में पैदा होकर कोशिश करूंगा, अगर स्वर्ग मिला तो वहां से मरकर विदेह पहुँचूँगा वहां सीमन्धरादि तीर्थकरों की वन्दना करूंगा, अनेक
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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