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________________ २५४ ] आत्मकथा कहीं भूल मालूम होती तो स्नेही स्वर में समझाता । इतना कभी न दवाता जिससे भविष्य में उसका हृदय मेरे सामने रहस्य प्रकट करते हुये भय खावे । इससे उसके मानसिक विकास में सहायता तो मिली ही, किंतु दो तन एक मन होने का सुख भी मिला । 1 चरित्र का निर्मल होना भी प्रेमसुख के लिये अत्यावश्यक है । जो लोग सौंदर्य से मोहित होकर अपनी स्त्री के प्रति विश्वासघात करते हैं, वे उसी शाखा को काट रहे हैं जिस पर वे बैठे हैं । ऐसे लोग अपनी पत्नी को दुखी करने के साथ स्वयं भी अशांत और दुखी होते हैं । वे प्रेम का वास्तविक आनन्द नहीं पा सकते । नारी का सुख इन्द्रिय सुख नहीं, हृदय का सुख है । इन्द्रिय-सुख तो हृदय-सुख के लिये सहायक मात्र है । नारी से जो इन्द्रिय-सुख हम पाते हैं, वह अन्य जड़ वस्तुओं के द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है: परन्तु हृदय अन्यत्र नहीं मिलता । जो विश्वसनीयता, निश्छल प्रेम, सुख-दुःख सहयोगिता हमें पत्नी में मिल सकती है, वह वेश्या या परस्त्री में नहीं । इसलिये सच्चे आनन्द के लिये भी ईमानदार होना आवश्यक है । यह ईमानदारी हमारी बड़ी से बड़ी निधि थी । इसे असाधारण तो नहीं कह सकते; क्योंकि देश के अधिकांश घरों में यह निधि पाई जाती है, यह देश का सौभाग्य है | परन्तु यह निधि नष्ट न हो जाय इसकी खबरदारी रखना चाहिये । इसका अच्छा उपाय यह है कि व्यापार आदि के आवश्यक कार्यों को छोड़कर पति या पत्नी को अकेले कहीं न रहना चाहिये। खासकर मनोविनोद के लिये तो अकेले कहीं न जाना चाहिये । जीवन में सिर्फ दो चार अपवादों को छोड़कर मैं कभी 1
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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