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________________ दाम्पत्य के अनुभव [ २४७ सम्भव है कि वधू शिष्टाचार का पालन करती रहे, परन्तु प्राणहीन शरीर की तरह प्रेमहीन शिष्टाचार एक निरर्थक सी वस्तु है । मेरी पत्नी को भी कुछ व्यक्तियों से ऐसा ही वैरभाव हो गया था । वह शिष्टाचार का पालन तो करती थी जिससे मैं उसे कुछ कह न सकूं, परन्तु उसमें स्नेह का रस न रह गया था । वृद्धों को चाहिये कि वे पुत्रधूको बेटी के समान समझें । यह मैं मानता हूं कि बेटी में और बमें अन्तर है । परन्तु वह अन्तर अपने और पराये का नहीं है, किन्तु जिम्मेदारी का है । पुत्री के ऊपर घरकी जिम्मेदारी नहीं है, जब कि पुत्रवधू ऊपर है । इसलिये पुत्रवधूमे काम कराने की चेष्टा करना उचित है । परन्तु यह सब प्रेम से करना चाहिये, और उसके सम्मान का भी काफी खयाल रखना चाहिये क्योंकि वह अमुक अंश में मेहमान भी है। हमारी शक्ति और हमारा अधिकार अधिक से अधिक क्यों न हो परन्तु उससे हम किसी का हृदय नहीं जीत सकते । और हृदय को जीते बिना हमें उससे गुख नहीं मिल सकता | हृदय जीतने के सैकड़ों उपाय नहीं हैं, सिर्फ एक ही उपाय है और उसका नाम है प्रेम | वह किसी भी प्रकट क्यों न हो, परन्तु सच्चा होना चाहिये । वृद्धजन जो चाहते है वह प्रेम के द्वारा ही पा सकते हैं । वृद्धों को, खासकर वृद्ध नारियों को इस बातका खयाल रखना चाहिये कि पुत्रवधू के दोष पड़ोसियों से न करें, उसको निंदित करने का प्रयत्न न करें । सो को प्रेम से या अत्यन्त संयत रोपसे सुधारने की कोशिश करें। उससे प्रेम से काम करावें । उससे काम न बनता हो तो सहायता दें, परन्तु अपमान या तिरस्कारपूर्वक उसे हटाकर
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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