SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२ ] आत्मकथा लिखते थकने पर रोटी आदि में लग जाना लिखने का विश्राम है । इस मनोवृत्ति का जो निर्माण हुआ उसे सत्येश्वर की दया न कहूं तो क्या कहूं? जीवन भर अपनी क्षुद्रता का जो अनुभव किया है उसे देखते हुए अपने पुरुषार्थ को बधाई देने की हिम्मत नहीं होती, और.न.सत्येश्वर की कृपा के सिवाय कोई महत्ता समझमें आती है। . बजन बढ़जाने पर शान्ता घरगृहस्थी का काम करने लगी पर. घाव बने ही रहे, थोड़ी थोड़ी जलचिकित्सा करते जाना तथा घावों को प्रतिदिन साफ करते जाना बस इतना ही काम था इस में मुझे प्रतिदिन एक घंटे से अधिक समय नहीं देना पड़ता था। हां, वाप्पस्नान या सूर्यस्नान के दिन दो घंटे लगजाते थे । इस तरह कई वर्ष चला । अब इतनी सेवा आदत में शुमार हो गई। अड़चन थी तो इतनी कि प्रचार के लिये मैं कहीं अकेला न जा सकता था इसलिये अपनी डाक्टरी की छोटी सी पेटी और शान्ता को साथ लेकर ही में प्रचार के लिये निकलता था। परन्तु सत्यसमाज की स्थापना के बाद जब नौकरी छोड़कर स्थान खोजने की जरूरत मालूम हुई और मेरा कार्य बहुत बढ़गया तब यह घरू डाक्टरी ढीली पड़गई में आठ आठ दस दस दिन के लिये अकेला ही बाहर जाने लगा, फल यह हुआ कि घाव बाहर से भरने लगे। मैं समझा घाव अच्छे होते जा रहे हैं पर उनने अपना श्रोत भीतर की तरफ कर लिया था और मवाद हृदय में एकत्रित होने लगा था पर यह सब मुझे तब न मालूम हुआ । . आन्तम वार जब मैं दक्षिण महाराष्ट्र के प्रवास से लौटा तो शान्ता को बीमार और भयंकर सिर दर्द से पीड़ित पाया । दिनरात
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy