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________________ सत्यसमाजकी स्थापना [२२९. लेकिन कुछ दिन बाद ही यह विचार जोर पकड़ने लगा कि अब नौकरी छोड़ना चाहिये । मैंने पत्नी से यह विचार प्रगट किया। शान्ता (पत्नी) ने कहा नौकरी छोड़ने में तो कोई हर्ज नहीं है पर रेटियों के लिये किसी का आश्रित न होना पड़े इसका उपाय , करलेना चाहिये । इसके लिये ऐसा करो कि जब दस हजार रुपये अपने पास होजायें तब नौकरी छोड़ देना। मैंने पत्नी की बात का समर्थन करते हुए कहा कि जब दस हजार रुपया इकट्ठा होजायगा तब नौकरी छोड़ दी जायगी किन्तु अगर कुछ कम भी रहे और पांच वर्ष पूरे होगये तो भी नौकरी छोड़ दी जायगी । पत्नीने इसे मंजर किया। इस प्रकार जन १९३७ नौकरी की अंतिम अवधि बनाई। इस प्रकार सत्य-समाज की स्थापना के बहुत पहिले ही सत्य-समाज की स्थापना की बाह्य भूमिका बनने लगी । इसका श्रेय जैन-धर्म मीमांसा को ही है। __वाय भूमिका की तरह अभ्यन्तर भूमिका का श्रेय भी जैनधर्म-मीमांसा को ही है। क्योंकि जब में जैन-धर्म-का संशोधन करने लगा तब उसमें दो काम किया करता था-जो अनुचित मालूम होता था यह निकाल दिया करता था और जो आवश्यक मालूम हुआ करता था यह जोड़ दिया करता था। इस प्रकार काम करने से मन में यह विचार आने लगा कि इस प्रकार संशोधन करने से तो सभी धर्म एक से होजायगे । नतिर उपदेश तो सभी धमों में पाये जाते है और विकार सत्र में. आगये हैं इस प्रकार सत्र धर्म समान है तब जन-धर्मी ही कालत क्यों ?
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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