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________________ १८८ ] आत्मकथा उनने मुझ से जैनप्रकाश के लिये एक लेख माँगा । मेरे लेख से कदाचित् वे प्रसन्न हुए और जैन प्रकाश के हिन्दी विभाग में लेख लिखने के लिये मैं ३५) महीने पर रख लिया गया। इस प्रकार १००) महीने की आमदनी पाकर मैं निश्चिन्त हो गया । इन्दौर से बम्बई का खर्च ज्यादा था पर वेतन भी कुछ ज्यादा मिलने लगा इसलिये टोटल वरावर ही रहा । क बाद में माणिकचन्द ग्रंथमाला का काम भी मिल गया । उसका काम भी १५-२० रुपये महीने का कर लेता था यह आमदनी इन्दोर से अधिक थी । इसलिये इन्दोर की अपेक्षा वचन कुछ अधिक करने लगा । अर्थसञ्चय की आवश्यकता भी अधिक मालूम होती थी, क्योंकि सेवा का जो क्षेत्र मैंने चुना था उसमें जीवन भर समाज की चोटें खाना जरूरी था । चोटें निंदा अपमान आदि में ही समाप्त नहीं हो जातीं किन्तु भूखों मारने की भी पूरी कोशिश की जाती है। ऐसी परिस्थिति में आर्थिक दृष्टि से कुछ स्वावलम्बी होना जरूरी था । यही कारण है कि संग्रह की लालसा न होनेपर भी संग्रह की तरफ विशेष ध्यान देने लगा | जब वम्बई में जम गया तव फिर समाज के अनेक स्थानों से बुलाने के पत्र आने लगे । एकवार फिर अनुभव हुआ कि दुनिया भरे को भरती है और भूखेको ठोकर मारती है । इसे क्या कहा जाय ? दुनिया के इस अज्ञानका परिणाम यह होता है कि बहुत कुछ देकर भी वह कुछ नहीं पाती उसका कुछ उपयोग नहीं होता । जरूरत वाले को अवसर पर दीगई सहायता जितनी उपयोगी है वह जितना प्रेम और कृतज्ञता पैदा कर सकती है उसका दसवां हिस्सा भी भरे को भरने ·
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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