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________________ आत्म-कथा १५४ ] ज़रूरत है मैं मुसकराया । अन्त में एक दिन मैंने कहा कि हम पं. गोपाल दासजी वरेया की मृतात्मा से बातचीत करना चाहते हैं आप किसी मृतात्मा से कहिये कि वह पंडितजी की आत्मा को ढूंढ कर लाये । ऋषिजी ने बेनड़ी को ही नियुक्त किया । वेनड़ी ने सात दिन का समय माँगा जो दिया गया । सातवें दिन अन्य दिनों की अपेक्षा मुझे बहुत उत्सुकता थी । बेनड़ी से जब पूछा गया तब उसने कहा -- पंडितजी उत्तम लोक में मिले । वे बड़ी मुश्किल से आये अभी इसी कमरे में हैं प्लाञ्चट पर वे आपके साथ बात करेंगे । बेनड़ी को विदा करके जब पंडितजी की आत्मा को बुलाया गया तो मैंने गोम्मटसार का एक प्रश्न रखकर उनका मत माँगा । ऋषिजी को ऐसी आशा नहीं थी । सातदिन तक वे मुझ से गोपालदासजी के विषय में कुछ न कुछ पूछते रहे थे पर मैंने उन्हें कुछ नहीं बताया था और गोम्मटसार के विषय में तो ऋषिजी जानते ही क्या थे, निदान पं. गोपालदासजी की आत्मा को कहना पड़ा कि अब हम बात नहीं करना चाहते । मैंने कहा - तत्र इतनी दूर आये क्यों ? उत्तर में 'नहीं', मैं जो भी कुछ कहूं उसके उत्तर में प्लाट 'नहीं' पर जाकर ठहर जाय । इस प्रकार इस परीक्षा में भी ऋषिजी फिस्स हो गये । तत्र से मुझे भी परलोकविद्या की बीमारी न रही । आश्चर्य है कि मृतात्मव्यवसायियों का एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन भी वन गया है, योरोप में इसके अधिवेशन भी हुए हैं ।
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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