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________________ १४८] आत्म-कथा गोलापूर्व बहुत मिलकर रहते थे, परवार-सभा के बाद उन्हें मालूम हुआ कि एक ऐसी भी जगह है जहां हम वरावरी के नाते से परवारों के साथ नहीं बैठ सकते, इसलिये गोलापूर्व सभा भी कायम हुई। गोलापूर्वी को भी अपनी जातीय सभा की आवश्यकता मालूम हुई पर गोलापूर्व सभा नहीं चली, पत्र भी नहीं चला इसलिये परवारों को मन ही मन अभिमान आया गोलापूरों में दीनता और ईर्ष्या आई, दोनों में जातीय द्वेष पैदा हुआ और पीछे से वह शिक्षण-संस्थाओं आदि में भी घुसगया । इसप्रकार समाज-सुधार और सामाजिक क्रान्ति के लिये तो ये सभाएं कुछ कर न पाई-हाँ, जातीय द्वे. अवश्य पैदा कर दिया । अनुभव और तर्क ने यह बात अच्छी तरह समझा दी कि इन सभाओं के द्वारा अल्पफल बहु-विधात के ढंग का थोड़ा बहुत और काम भले ही हो जाय, जातीय या साम्प्रदायिक अहंकार की पूजा के लिये तन धन का कुछ बलिदान भी हो जाय, क्षोभ भी फैल जाय पर समाजसुधार या आवश्यक सामाजिक क्रान्ति नहीं हो सकती । मैं आठ दस वर्ष परवार सभा से चिपका रहा और परवार वन्धु का सम्पादक भी बहुत वर्षों तक रहा पर उससे जो विविध अनुभव मिले उनने मुझे निश्चय कराया कि ये सभाएं समाज की गुलामी के स्थान हैं-समाज की सेवा के नहीं। . परवार सभा से ध्यान हटा कर दि. जैन परिषत् की तरफ मैंने ध्यान दिया। यह परिषत् महासभा से हटकर कुछ सुधारकों ने इसलिये वनाई थी कि जिससे समाज-सुधार के काम किये जा सकें। उसके लखनऊ आदि के आधिवेशनों में मैं
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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