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________________ १४२ ] आत्म-कथा हुआ कुछ नहीं । अधिकारी भी मेरी प्रकृति से परिचित हो गये थे इसलिये छेड़खानी कम करते थे । और मैं भी अनुभव - हीन होने के कारण मर्यादा से बाहर लिख जाता था या वोल जाता था। इससे इतना मालूम हो सकता है कि मैं कैसा जीव था और अमुक अंशों में अभी भी हूं । " 3 आज भी मैं ऐसे धनवानों को जानता हूं जिनसे मैंने प्रेम किया है, मित्रता रक्खी है और उनके पोजीशन को किसी भी तरह धक्का नहीं लगाया, पर जहां मुझे यह मालूम हुआ कि धन के कारण वह अपने को लोकोत्तर व्यक्ति मनवाना चाहता हैं, विद्वत्ता और सेवकता का अपमान करना चाहता है वहीं तनकर खड़ा हो गया हूँ | जैनधर्म के अपरिग्रहवाद का और छात्रावस्था में ब्राह्मणों की संगति का मेरे ऊपर ऐसा ही असर पड़ा है । यों व्यक्तिमात्र से मेरा व्यवहार प्रेमपूर्ण और अभिमानशून्य ही रहा है और जिनको गुरु सम्झा उनके सामने तो बिलकुल झुका रहा हूं । सागर पाठशाला में मैं अपने अध्यापकों की जूती उठाने को सौभाग्य समझता था । उनकी हरएक सेवा करने में मुझे प्रसन्नता होती थी और अगर वे किसी कारण गाली दें, अपमान करें तो सिर झुकाकर सह लेने में मैं आदमियत समझता था । · एक बात और है कि स्वभाव से मुझ में विनय हो या न हो पर दीनता अवश्य है । दीनता एक दोषः ही है जो कौटुम्बिक परिस्थिति के कारण मुझ में आगई है इस प्रकार दीनता विनय और अभिमान तीनों के मिश्रण से मैं एक विचित्र' सा जीव ·
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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