SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६] : आत्म-कथा मेरे साथ ऐसा. व्यवहार करने लगे जैसे किसी मामूली क्लर्क से किया। जाता है। पंडितजी, ज़रा पानी तो पिलाओ अमुक जगह से मेरा अमुक कागज़ तो ले आओ आदि फर्मान छोड़ने लगे। मन .. ही मन खिन्न होकर भी अवसर की ताक में उनकी आज्ञा बजाता रहा । मैं यह सोचने लगा कि अगर अभी फटकार दूंगा तो पैर हो जायगा और एकभर वैर हो जाने पर मनुष्य वैरी के गुणों को भी दोष बनाता है इसलिये जबतक योग्यता दिखान का अवसर नहीं आया तबतक चुप ही रहना चाहिये । योग्यता दिखाने के बाद अगर धन के आगे विद्वत्ता का अपमान होगा. तब देखा जायगा । अन्त में ऐसा ही हुआ । एक दो व्याख्यान होने . और दो चार दिन शास्त्र पढ़ने के बाद मेरे विषय. में लोगों के विचार बदल गये। इधर मैंने नियमला कर लिया कि किसी धनवान के घर कोई खास आवश्यकता के बिना न जाऊंगा । एक तो योंही विना 'काम के मिलने जुलने की आदत कम थी और फिर धनवानों से मैं खासकर न मिलता था। धर्मशास्त्र की दृष्टि से । मरें कुछ ऐसे विचार थ कि' हिंसा झूठ चौरी कुशील की तरह परिग्रह को भी जैन-शास्त्रों में पाप बताया है । अब अगर परिग्रह होने के कारण किसी को पापी नहीं कह सकते तो कम से कम उसका हमें आदर तो न करना चाहिये। धनसे किसी का आदर करना तो जैनाव में दोष लगाना है। . . . . . . . .. .. . .. . - उस समय मैं परिग्रह की जो परिभाषा समझता था वह आज नहीं मानता- फिर भी धनवानों के विषय में उस समय के विचारों की छाप आज भी दिल पर है। व्यवहारता के कारण
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy