SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २३० ) नता, तेवा तेवा शरीरादिक जूदा जूदा भेद पड्या छे. तेथी शरीर इंद्रि अपेक्षित रूपी भेद गण्या छे. प्रश्नः - १४७ संवरना सत्तावन भेद अरूपी कह्या, ने संवरनी प्रवृत्ति बाह्यथी देखाय छे ते तो शरीरथी छे. तो अरूपी केम ? उत्तर:- बाह्यश्री पुद्गल उपरथी मोह उतरे, त्यारे बराबर बाह्य वर्त्त - ना थाय छे. ने जेम जेम संवरनी बाह्यवर्त्तना थाय छे, तेम तेम पुद्गलदशामांथी प्रवृत्ति रोकाती जाय छे अने निज आत्म स्वरूपमा लीनता थाय छे, जेम जेम निज ज्ञानमां लीन थाय छे. एटले आतां कर्म रोकाय छे, आत्म स्वरूपमा रहेवाथी द्रव्यकर्म, भावकर्म बन्ने रोकाय छे, ते जे भावकर्म रोकायां ते अरूपी छे. माटे संवर पण अरूपी छे तेथी संवरना भेद श्ररूपीमां गण्या छे. प्रश्नः - १४८ संवर निर्जरा मिध्यात्वी करे के नहि ? उत्तरः- मार्गानुसारी मिध्यात गुणस्थाने अंशे संवर, अंशे निर्जरा करे, एम हेमाचार्य महाराज जोगशास्त्रमां कहे छे. तेम विचारबिंदुमां उपाध्याय महाराज श्रीजशोविजयजी महाराज पण कहे छे. प्रश्नः - १४९ देरासरमां प्रभुजीनां अंगलुहणां मेलां वा फाटेला वापरे तेनो दोष कारभारीने के बधा श्रावकोने १ उत्तरः- प्रभुने तो सर्वे उत्तम उत्तम वस्तु चडाववीज जोइए. आपण शरीर लुहवाने फाटेलुं वस्त्र कोइए लोहवा सारु आप्युं होय तो ते अ• नुकूल आवतुं नथी ने आपनार उपर द्वेश आवे छे. वली आपणे घेर कोइ परदेशी परोणा आव्या होय, तेने फाटेलो वा, मेलो रुमाल श्रापता नयी तो प्रभुनां अंगणां फाटेलां वा मेलां वापरीये तो आपणा क रतां ने परोणा करतां प्रभु मनमां अधिक न आव्या श्रने ज्यारे प्रभुनी अधिकता मनमां न श्रावी, त्यारे आत्माने लाभ शी रीते थशे ? अने मु. प्रभु मोटा के एम कहीए छीए पण चित्तमां मोटाइ नहि आवे, म तो नहि थाय, पण अवश्य मिध्यात्व लागशे, वली बीजी.
SR No.010830
Book TitlePrashnottar Ratna Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupchand
PublisherJain Prasarak Gyanmandal
Publication Year1906
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy