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________________ (१५.) शांत. थाय एम ध्याइए. ते अग्निधारणा कहीए. हवे वायु समरीए ते वा यु केवो के के त्रण भुवन--स्वर्ग मृत्यु पाताल तेने पूरी रह्यो छे. वली परवतने पण वायु उन्मूलन करे छे. वली समुद्रने पण वायु क्षोभ पमाडे छे. मर्यादा मूकावे छे एवा अति प्रचंड वायुए करी अंगनी धारणाए देह तथा अष्टकर्म रूप कमलने बालीने भस्म करेलुं छे. ते भस्मने ध्यान रूप वायुए उडाडीए, पछी वायु समरवू शांत करीए. ए वायुधारणा. पछी जलधारणाने अमृत रूपणी अति बहूल वेगवती वृष्टी करता मेघमाला परीपूर्ण आकाशमां समरवू. ते कलाबिंदु सहित वरुणांकित मंडल वारुण बीज वइशं समर. तेवार पछी वरुण बीजे उपन्या अमृत रूपी ए जलना प्रवाहे आकाश भरवू अगनी धारणाथी अगनी पूरथी देह तथा कर्म बल्यां छे तेनी राख छे ते ध्यान रूप जलनी वृष्टिथी पखालq ते वारुणी थी समर. ए वारुणीधारणा कहीए. जे हवे पांचमी तत्वधारणा ते स. प्त धातुए रहित निष्कंलक, निर्मल, चंद्रबिंब सरखो उज्वल एवी सर्वज्ञ सर्व वस्तुना जाण ते सरखं आपणा आत्मापणुं भावq. बहु तेजमय अज्ञान रूप तिमिरे रहित मणीमय सिंहासणे बेठा देव दाणव गंधर्व सिद्ध चारणादिके सेवित अनेक अतिशये करी शोमित, सघला कर्मे करी रहित, सहज सरूपी, पर स्वरूपथी रहित, स्वभाव महिमा निधान एवो श्रात्मा आपणा शरीर मध्ये पुरुषाकारे समरीए ते तत्वभू धारणा कहीए. ए डिस्थध्यान जोगीश्वर ध्याय छे. तेमां पोताना स्वरूपमां लीन थवाथी मु. गतीनां सुख अनुभवे छे. वली ए ध्यान प्रभावे जोगीश्वरने दुष्टविद्या उ. चाहण मारण स्थंभन वीगेरेथी पीडा थाय नहीं. शाकीनी डाकीनी लाकीनी काकीनी क्षुद्रयोगीनी भूत प्रेत पिशाचादिक. जोगीस्वरनुं तेज अणसहतां ततक्षण नासी जाय. वली मदोन्मत्त गजेंद्र व्याघ्र सीह शरभ, अष्टापद जीव विशेष दृष्टिविष सर्प अति बीहामणा ते जोगीश्वरने उपद्रव करवा आवतां जोगीश्वरने देखतांज स्थंभी जाय वा दूर जाय. जो गीश्वरनुं तेज सहन करी शके नहीं, एवो महिमा पिंडस्थ ध्याननो छे ने
SR No.010830
Book TitlePrashnottar Ratna Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupchand
PublisherJain Prasarak Gyanmandal
Publication Year1906
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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