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________________ (१४५) जीमां हरिभद्रसूरी महाराजे कडुं छे. तथा बीजा पण प्रतिष्ठाकल्पोमा मुख्यपणे आचार्य महाराज करे. वली कुलप्रभसूरी महाराजना शिष्य नरेश्वरसूरीए सामाचारी रची छे, तेमां आचार्य करे ते सूरीमंत्रथी करे, ने आचार्यना अभावे उपाध्यायादिक वर्धमानविद्याथी करे, एवी रीत छे. एक प्रतिष्ठाकल्पनी जूनी प्रत में दीठी हती तेमां श्रावक करे, एम पण कयुं छे. ते मंत्र पण जूदो बताव्यो छे. आचार्य सूरीमंत्रथी, उपाध्याय वर्धमानविद्याथी ने श्रावकनो जूदो मंत्र छे. हवे इहां शंका थशे जे हीर- , विजयसूरी महाराजे हरिप्रश्नमां श्रावक प्रतिष्ठित प्रतिमाजी अपूजनीक कही छे, ते केम ? ते विषे जाणवू जे त्यां जे कयुं छे जे एवी प्रतिष्ठेली मुनिना वासक्षेपे पूजनीक थाय, तेथी जाणीए छीए जे प्रतिष्ठाकल्पमा श्रावकनो मंत्र बताव्यो छे. तेनुं कारण एq जणाय छे के आचार्य उपाध्यायनो योग न बने ने प्रभुभक्ति करवी छे, त्यारे पोते प्रतिष्ठा करी ले. ने ज्यारे आचार्यादिकनो योग बने त्यारे तेमनी पासे वासक्षेप करावी ले. आवी रीते बे वात युक्त थाय छे. वली कोइक कहे छे जे आचार्य वा. सक्षेप करे ज नहि. श्रावक करे. ते पण अयोग्य छे. कारण जे त्रेसठ शलाका पुरुषना चरित्रमा कपिल केवलीये प्रतिष्ठा करी छे. त्यार पछी पण घणा प्राचार्ये करी छे ते वात प्रसिद्ध छे. वास्ते मुख्यवृत्तिए तो छत्रीश गुणे बिराजमान आचार्य महाराज योग्य छे. प्रश्नः-७८ श्रा कालमां धर्मसाधन करनारमा केटलाएक दुःखी देखाथ छे ने अधर्मी सुखी देखाय छे तेनुं शुं कारण ? उत्तरः-अधर्मी जीव छे तेने पाछला भवनी प्रायःअधर्मनी संज्ञा चाली आवे छे, तेथी अधर्मनी बुद्धि थाय छे, तो पाछले भवे अधर्म सेव्यो छे, ते कंइ मनुष्यमांथी घणुं करीने मनुष्य थाय नहि. अधर्मी तो प्रायः नरक तिर्यंचमां जाय, त्यारे ते भवनां पाप नरक तिर्यंचमां भोगवी मनुज्य थाय त्यारे तेने केटलांएक दुःख ओछां होय; पण ते सुख पामवाथी पाछां पापना काम करे, तेथी नरक तिर्यचनी दुर्गति पामे, त्यां दुःख
SR No.010830
Book TitlePrashnottar Ratna Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupchand
PublisherJain Prasarak Gyanmandal
Publication Year1906
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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