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________________ (१३७) दशा जागे छे. वली व्रतोथी संसार संबंध छूटी जाय छ. तो ते संबंधी कारणो नाश पामे छे. तेथी तेना विकल्पो पण नाश पामे छे. वली हिंसा असत्य भाषण प्रमुखनो त्याग थाय छे. त्यारे कोइ जीव साथे क्लेश विकल्प पण थाय नहि, वास्ते ए बाह्यज्ञानी व्रतादिक रूडी रीते पाले तो . आवा अंतरंग गुणर्नु कारण थाय. हवे बीजुं अंतरज्ञान ते आत्मा शं पदार्थ छे! आ शरीर देखाय छे ते शुं पदार्थ छे ! ए शरीरादिकनी प्राप्ति शाथी थाय छे ? आ वर्तना थाय छे ते स्वभाविक छ के विमाविक छे ? आत्मा नित्य छे के अनित्य छ ? के ए द्रव्यना शुं धर्म रह्या छे! छए द्रव्यना शुं शुं गुण पर्याय छे ? निश्चय स्वरूप शुं छे? व्यवहार स्वरूप शुं छे ? आत्माने करवा योग्य तथा न करवा योग्य शुं छे ? चेतनधर्म तथा जडधर्म ते शुं ? कृत्रिम स्वरूप ते शुं ? स्वभाविक श्रानंद ते शुं विभाविक आनंद ते शुं? आदि स्वपर स्वरूपनो बोध ए बोध थवाथी थाय. पछी एकांते बेसी पोताना आत्माना स्वरूपमा स्थिर चित्त करी बाह्यप्रवृत्ति उद्योग खशेडी एक आत्मज्ञानमां लीनता करे. प्रथम श्रुतज्ञानना बले पोताना आत्माना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव विचारे जे द्रव्यथी आत्मा द्रव्य एक पदार्थ छे. द्रव्य कोने कहिये ? जेनो त्रण कालमा विनाश नथी. जे विनाशी द्रव्य छ, ते उपचरित द्रव्य छे. वली द्रव्य कोने कहिये ? गुण पर्याए युक्त ते द्रव्य कहिये. ते आत्मद्रव्य जाणे ते क्षेत्रथी असंख्यात प्रदेशमय छे. कुथुवामां कुंथुवा जेटला क्षेत्रमा रहे छे ते जुगलिआनां त्रण गाउनां शरीर छे, तेमां ते प्रमाणे -विस्तारे रहे छे, वली केवलज्ञानी महाराज केवल समुद्घात करे छे त्यारे आखा चौदराज लोकमां आत्मप्रदेश विस्तारे छे. त्यारे आखा लोक प्रमाणे क्षेत्र छे, कालथी अनादिकालनी छे ते कोइ दिवस अंत थवानो नथी, तेथी अनंत कहिए. भावी अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत वीर्य, श्रव्याबाध सुखमय, अगम, अगोचर, अलक्ष्य ए आदि अनंत गुण, ते आत्मानो भाव छे. श्रावो भाव जाणीने आत्मा परभावमाथी चित्त ख
SR No.010830
Book TitlePrashnottar Ratna Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupchand
PublisherJain Prasarak Gyanmandal
Publication Year1906
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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