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________________ (१०८) ते आनंदनुं सुख ध्यानथी चलायमान थाय छे, तो पण केटलोएक वखत रहे छे. माटे हे चेतन! तुं त्हारा स्वभाविक सुखमां मग्न रहे तो हारु रहेवानुं स्थान लोकाग्रे सिद्धिस्थान छे त्यां थशे, ए आदि चोथा पायामां ध्यान करे ए चारे पायामां स्वरूप विचार लख्यो छे, ते चितवन रूप छे ने ध्यान तो मन वचननी एकाग्रताए अपूर्वज्ञान स्वभाविक थाय ते कहेवाय. एम कहे तेनुं समजवू जे ध्यानमां श्रुतज्ञानने बले प्रथम तो चितवन करे, पछी स्वभाविक थाय. वास्ते चितवन करता ज ध्यान थाय. ए रीते सातमा गुणस्थानमां ध्यानादिकमां व.. आठमुं अपूर्व गुणस्थान. ए गुणस्थानमा पूर्वे नहि आवेला भाव प्राप्त थाय छे. ए गुणस्थान उपशमभावथी थाय छे. तेनी प्रकृति उपशम पामे छे, ने क्षायकभावे ए गुणस्थान थाय छे. ते सत्ता बंध उदयथी क्षय करता जाय छे. क्षायकभाववाला नो चढीने केवलज्ञान ज पामे छे ने उपशमवाला तो अगीयारमा गुणस्थान सुधी चढीने पाछा पडी जाय छे. पछी पा. छा क्षायकभाव प्रगटे ने चढे ते पडे नहि. ए आठमे गुणस्थाने समकित मोहनीनो उदय न होय. कारण जे सातमा गुणस्थानना अंत सुधीमां एनो नाश थाय छे, त्यारे ए गुणस्थान प्रगटे छे. ए गुणस्थानमां शुक्लध्यान प्रगट थाय छे. प्रथम तो श्रुतज्ञानने बले विचार करे छे, पण पछी स्वभाविक ज्ञान प्रगट थाय छे. तेणे करी ध्यान करे. भेदज्ञान प्रगट करे छे. ए गुणस्थानमा अनुभव ज्ञान थाय छे ते जेवू सूर्य उदय थता अगाडी जेम अरुणोदय थाय छे, ने उद्योत थाय छे तेम केवलज्ञान रूप उद्योत थवानो छ, तेनो पहेलो प्रकाश थाय छे. आ गुणस्थानमां केवल सहज ध्यान छे. कृत्रिम हठादिक ध्यान नथी. ए गुणस्थान, सुख तथा ज्ञान जेने थाय ते जाणे. महा अद्भुत विशुद्धि छे. ज्ञानावर्णी, दर्शनावर्णी, मोहनी, अंतराय ए कर्म उदय रह्यां छे, पण तेना रस नाश थता जाय के. मोहनीकर्मनी १३ प्रकृति रही छे, पण ते बहु ज रस रहित थइ.गइ
SR No.010830
Book TitlePrashnottar Ratna Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupchand
PublisherJain Prasarak Gyanmandal
Publication Year1906
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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