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________________ संदेश सत्रहवाँ [ ५५ चुनाव के वर्तमान रूप, ने धन को ही भाष्य-अमुक धर्म या अमुक दर्शन को योग्यता का मापदड बना दिया है। जो कुछ पढने पढाने की. मनाई नही है । नि.पक्ष रीतिसे सेवा कर सकते है जिन के त्यागमय जीवन का उनका पठन पाठन चलना चाहिये । परन्तु ऐसी जनता लाभ उठा सकती है उनकी सेवा से साम्प्रदायिक सस्थाएँ भी है जहा अपने धर्म और जनता वचित रहती है और जिनने सेवा की अपने समाज की सर्वोत्तमता का और दूसरे वर्णमाला भी नहीं पढ़ी है वे धन के बल पर सेवा धर्मो और समाजो की निंदा का विष दिनरात के लिये सवार हो जाते है । यद्यपि सर्वथा यह भरा जाता है । इनसे राष्ट्र की और मनुष्यता की बात नहीं है कि धनवान ही सेवा के लिये चुने बडी हानि होती है | में स्वय ऐसी शालाओ का जाते हो और गरीब एक भी न आता हो पर शिकार हू । बीस वर्ष पहिले जैसी मेरी मनोये दोनो बाते अपवाद रूप में होती है अधिकाश वृत्ति थी वैसी मनोवृत्ति को रखकर मनुष्य सत्य मे धन बाजी मार ले जाता है। इस अन्धेर को और प्रेम से कोसो दूर रहेगा । न जाने मुझ मे जितना रोका जा सकता हो रोकना चाहिये। स्वतन्त्र विचारणा का बीज कहा से घुसा पडा था संच सेवक ही आना चाहिये चाहे वे गरीब कि उनने इस पापको दूर कर दिया परन्तु मेरे हो चाहे अमीर । ढेरो साथी उसके शिकार अभी तक बने हुए है । खैर, अल्पसख्यक समाजे. ऐसा विष फैलाकर भी निरतिवाढ म्युनिसपल आदि मे लोकतन्त्र __ अपनी अशक्ति के कारण राष्ट्रव्यापी क्षोभ पैदा चाहता है पर अयोग्य और स्वार्थ-साधुओ से इन नहीं कर पाती परन्तु जरा बडी सख्यावाली समाजे सस्थाओ को बचाये रखना चाहता है। इस प्रकार की कट्टरता के शिक्षण से राष्ट्रमे ऐसा ___पन्द्रहवे और सोलहवे सन्देश के मान्य होने विप घोलती है कि जिन शिक्षितो से शान्ति पर साम्प्रदायिक और जातीय छुट्टियो का झगड़ा प्रेम और सभ्यता की आशा करना चाहिये वे भी तय हो जायगा । सप्ताह मे एक रविवार की अशान्ति द्रुप और असभ्यता की मूर्ति बनजाते हैं। छुट्टी रहे । गर्मी की छुट्टियों रहे । और भी कुछ ऋतु- साधारण लोग जिस समस्या को सरलता से सुलझा सम्बन्धी छुट्टियाँ रहे । स्वतन्त्रता दिवस आदि सकत है उसे वे पढे लिख लोग चिरकाल के लिये की भी छुट्टी रहे । धार्मिक और सामाजिक त्योहारो उलझा देते है । इसलिये ऐसी सस्थाएँ न हो यह की आम छुट्टियाँ बढ रहे । जिसमे किसी को सब से अच्छा । परन्तु अगर हो ही तो वे सरकारयह कहने की गुजायश न रहे कि हमारे सम्प्र- मान्य न समझी जॉय एक सस्थाको जो सुविधाएँ दाय की छुट्टियों नहीं है या कम है तुम्हारे की मिलती है वे इन्हे न मिले । जैसे अधिक हैं । हा, इच्छानुसार उत्सव मनाने के उनकी जमीन मकान आदिपर टेक्स न लिये हरएक नौकर को दस दिन की छुट्टी मिले । लगना, कभी कोशन टिकिट मिलजाना, वहाकी आजकल यहा इस विषय मे काफी अन्याय हो रहा है। परीक्षाको प्रमाण मानलेना, आर्थिक सहायता सन्देश सत्रहवा आदि सुविधाये न मिले । ऐसी सस्थाएँ अमान्य करदी जॉय जो साम्प्र- धर्म और दर्शन के शिक्षण को बन्द करने दायिक या जातीय कट्टरता का पाठ पढ़ाता है। की जरूरत नहीं है।
SR No.010828
Book TitleNirtivad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatya Sandesh Karyalay
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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