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________________ संदेश बारहवॉ 1 अनुचित है । खैर, हिन्दी, उर्दू का व्याकरण एक होने से भाषा की चिन्ता नहीं है साधारण जनता उसे आप ही ठीक कर लेगी। रहा लिपि का प्रश्न । सो भारत के बाहर की लिपि को भारत मे प्रचलित होने का नैतिक हक्क नहीं है । फिरभी अच्छाई की दृष्टि से विचार किया जा सकता है । सो लिखना पढना और प्रेस तीनो दृष्टियो से उर्दू लिपि ठीक नही है | रोमन लिपि प्रेस की दृष्टि से ठीक है पर पढने की दृष्टिसे उस मे भी काफी खराबी है । और लिपि मे शुद्ध पढना ही सब स महत्त्व की बात है । नागरी आदि लिपियो मे शुद्ध पढ़े जाने का गुण असाधारण है । थोडी सी त्रुटि है जो सरलता से दूर की जा सकती है पर प्रेस की दृष्टि से रोमन की अपेक्षा खराब है । इसलिये इस दृष्टि से इसमे काफी सुधार की जरूरत है । अथवा कोई ऐसी लिपि बनाना चाहिये जो सर्वगुणसम्पन्न हो । इस यि मे सस्कृति का प्रश्न 'व्यर्थ है । यह तो कुरूढि - पूजा है । हमे नये पुराने या अपने पराये का नहीं किन्तु अच्छाई का पुजारी बनना चाहिये । खैर, नागरिकता का मतलब हैं कि उस देश मे अपने को मिला ढेना । अहंकार आदि को राष्ट्र की वेदी पर चढा देना । बाहर का आया हुआ आदमी अगर नागरिक तो बनना चाहता है पर उस देश को अपनाना नही चाहता तो उस देश में बसने का उसे नैतिक हक्क नही है । जैसे वर्तमान मे अग्रेज लोग यहा बसे हुए है और नागरिक अधिकार भी उन्हे मिले है कुछ कुछ विशेषाधिकार भी पाये हुए है और कुछ कानूनी सुविधाएँ भी है परन्तु यह सब अन्याय है । यद्यपि एक देश का दूसरे देश पर शाराक होना ही अन्याय है परन्तु यह एक दूसरे तरह 1 [ ४९ का अन्याय है । कोई अग्रेज सरकारी नौकर बन कर यहा आता है तो आये, नौकरी करके चला जावे परन्तु यहा बसने पर उसे या व्यापारी अग्रेजों को नागरिकता के अधिकार तबतक नहीं मिलना चाहिये जबतक वे इस देश को मातृभूमि समझकर प्यार न करने लगे और इस देश को उन्नत स्वाधीन और सुग्बी बनाने का प्रयत्न न करे । मुसलमानो के विषय मे यह प्रश्न खडा ही नहीं होता । पहली बात तो यह है कि ये मुसलमान बाहर से आये हुए नहीं हैं । यही के निवासी है । धर्म-परिवर्तन कर लेने से नागरिकता के अधिकार नही मारे जा सकते । थोडे 1 बहुत जो मुसलमान बाहर से आये थे उनके वगजो मे गायद ही ऐसा कोई हो जिस मे मातृपक्ष द्वारा हिन्दू रक्त न बहता हो । इस प्रकार सैकडो वर्षो के निवास से चैवाहिक सम्बन्ध या रक्त-मिश्रण से मुसलमान लोग हिन्दुस्थानी ही है । हा, अगर कोई मुसलमान अपने को हिन्दुस्थानी नही कहना चाहता भारतमाता या माढरे हिन्द कहने से उसे चिड है वह अपने को अभी भी अरव तुर्कस्थान आदि का नागरिक मानता है तो यह उसकी मर्जी है । माने, पर ऐसी अवस्थामे नागरिकता के अधिकार नहीं दिये जा सकते । एक देशके आदमी दूसरे देश मे बस ही नसके, यह एक अतिवाद है, और दूसरे देश मे वसकर वहा अपनी राष्ट्रीयता को समर्पण न करना बहा के निवासियो मे फूट का कारण बनना दूसरा अतिवाद है । निरतिवाद दोनो का निपेध करके उचित रूप मे वसने का मार्ग ताता है ।
SR No.010828
Book TitleNirtivad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatya Sandesh Karyalay
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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