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________________ ३४ ] निरतिवाद धर्म जगत् की शान्ति के लिये आया था उसी धर्म के विषय में निरतिवाद न तो किसी प्रकार दूसरे वर्म भी आये थे । सदाचार के नियम धर्म मे अन्धश्रद्धालु होने को कहता है न अन्वसभी धर्मो मे पाये जाते है । जो अन्तर है वह निन्दक, वह विवेकपूर्ण समभावी होने की प्रेरणा देशकाल का है सो होना चाहिये । ऐसी हालत करता है | धर्म-सस्थापक महापुरुपो को न तो मे आप अमुक धर्मवाली समाज मे पैदा हुए इसलिये वह ईश्वर मानता है न वश्चक । उन्हें लोक-सेवक वह धर्म सर्वोत्तम है इसमे सचाई क्या हुई ? आप हिन्द्र पूर्वजो के समान आदरणीय-वन्दनीय समझता है मे पैदा हुए सो हिन्दू धर्म अच्छा और मुसलमान मे और एक दुसरो के पूर्वजो का आदर करके पैदा हुए इसलिये मुसलमान धर्म अच्छा या जैन परस्पर मे प्रेम बढाने का सन्देश देता है । मे पैदा हुए सो जैन धर्म अच्छा इसमे नि पक्षता संदेश तीसरा विचारकता और तर्क नहीं है इसलिये इसका कुछ सम्प्रदाय या जाति के नामपर किसी को मूल्य नही । यहा धर्म की ओट मे अभिमान की किसी भी प्रकार के विशेषाधिकार न रहे । न पूजा है जो कि पाप-मूल है । सस्कारो के कारण पृथक् निर्वाचन रहे । अगर किसी धर्म विशेष से आपको आत्मीयता भाष्य-सम्प्रदायो को और जातियो को जो हो गई है तो धर्म के साथ घनिष्टता रखिये पर विशंपाविकार मिलते है उससे ईर्ष्या फूट अविश्वास इसीलिये दसरे धर्मों की निन्दा न कीनिये और आदि बटने के सिवाय और कुछ लाभ नहीं । न अपने ही धर्म को स्वर्ग मोक्ष पहुंचाने का ठेका राष्टीय उदारता नष्ट होजाती है । और इन दीजिये । परीक्षा करते समय भी लोकहित को दलबन्दियो मे राष्ट्रका हित गौण होजाता है। धर्म की कसौटी वनाइये अपने धर्म के अमुक वेप हिन्द मुसलमानो के प्रश्न को लेलीजिये । एक के या रीतिरिवाजो को धर्म की कसौटी बनाकर दूसरे प्रतिनिधि को दूसरे की कोई पर्वाह नहीं' धर्मों की परीक्षा न कीजिये सभी धर्म अपने रूप इसलिये दोनो को राष्ट्र की चिन्ता न होकर अपनी को धर्म की कसौटी बनाकर दूसरो की परीक्षा अपनी कौम की पर्वाह होती है । आपस मे ही करे तो सभी परस्पर मिथ्या साबित होगे फिर आत्मरक्षा की चिन्ता मे सब परेशान है, विवायक आपका धर्म भी मिथ्या होगा । लोकहित की दृष्टि कार्य या स्वतन्त्रता का कार्य कोई नहीं कर पाता से विचार करने पर और जिस देशकाल मे वह या बहुत कम कर पाता है । जातीय दगे होते है धर्म पैदा हुआ था उसदेश काल को नजर मे तो उनका उपाय करने की अपेक्षा अपनी अपनी रखने पर सभी धर्म सन्तोपजनक मालूम होगे। कौम को निर्दोप साबित करने की वकालत हा, जो बाते अकल्याणकर हो उन्हे कदापि न मे सब शक्ति खर्च हो जाती है । खैर, काग्रेस मरीखी मानिये पर दूसरो की ही नहीं, अपनी भी अकल्या- एक अप्ताम्प्रदायिक सस्था के होने से फिर भी णकर बाते न मानिये बल्कि जब दोप देखने की गनीमत है । अगर हिन्दू सभा और मुसलिमलीग के इच्छा हो तो पहिले अपनी वर्मसस्था के देखिये ही प्रतिनिधि धारासभाओ मे रहे तो वारासभाओं पीछे दूसरो की धर्म सस्था के । आत्मनिंदा बुरी के टग ऑफ वार मे राष्ट्र की वजिया उटजॉय । नही है पर परनिन्दा बुरी है । अगर हिन्दू मुसलमानो के अलग अलग प्रति
SR No.010828
Book TitleNirtivad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatya Sandesh Karyalay
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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