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________________ १६. ते णं देवा चउद्दसह श्रद्धमासहि श्राणमति वा पाणमति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १७. तेसि णं देवाणं चउद्दसहि वाससहस्सेहि श्राहारट्ठे समुपवज्जइ । १८. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे उद्दसह भवग्गणेह सिज्भिस्सति बुज्भिस्सति मुन्चिस्सति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । समवाय-मुर्त ५.१ १६. वे देव चौदह अर्धमासों / पक्षों में न / आहार लेते हैं, पान करते है । उच्छवास लेते है, निःश्वास छोड़ते है | १७. उन देवों के चौदह हजार वर्ष में प्रहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । १८. कुछेक भव- सिद्धिक जीव हैं, जो चौदह भव ग्रहणकर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे सर्वदुःखान्त करेंगे । समय- १९
SR No.010827
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages322
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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