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________________ मनःपर्यव-ज्ञान वह है, जो असमुत्पन्न मनोगत भाव पर्यन्त जानने के लिए समुत्पन्न होता है। मएपज्जवनाणे वा से असमुप्पपणपुग्वे समुप्पज्जिज्जा, अंतो मणुस्सवेत्ते अड्डातिज्जेसु दीवसमुद्देसु सम्णोणं पंचेंदियारणं पज्जत्तगाणं मरणोगए भावे जारिणत्तए। केवलनारणे वासे असमुप्पण्णपुवे समुप्पज्जिज्जा, केवलं लोगं जारिणत्तए। केवलदंसरणे वा से असमुप्पण्णपुत्वे समुप्पज्जिज्जा, केवलं लोयं पासित्तए। केवलिमरणं वा मरिज्जा, सव्व दुक्खप्पहीरणाए। ३. मंदरे एवं पवए मूले दसजोयरण सहस्साई विखंभेणं पण्यते । केवल-ज्ञान वह है, जो असमुत्पन्न केवल लोक/त्रैलोक्य को जानने के लिए समुत्पन्न होता है। केवल-दर्शन वह है, जो असमुत्पन्न केवल लोक को देखने के लिए समुत्पन्न होता है। केवलि-मरण वह है, जो सर्व दुःखों के समापन के लिए मरे। ३ मन्दर/सुमेरु-पर्वत मूल में दस हजार योजन विष्कम्भक / विस्तृत प्रज्ञप्त ४. अर्हत अरिष्टनेमि ऊँचाई की दृष्टि से दस धनुप ऊँचे थे। ४. अरहा णं अरिट्ठनेमी दस धणूई उड्ड उच्चत्तणं होत्था। ५. कण्हे णं वासुदेवे दस धणूई उड्डे उच्चत्तरणं होत्था। ५. वासुदेव कृष्ण ऊँचाई की दृष्टि से दस धनुप ऊँचे थे। ६. रामे गं बलदेवे दस धणई उड़ उच्चत्तण होत्था। ६. वलदेव राम ऊंचाई की दृष्टि से दस धनुष ऊँचे थे। ७. दस नक्खत्ता नाणविद्धिकरा पग्रपत्ता, तं जहामिगसिरमद्दा पुस्सो, तिणि प्र पुन्या मूलमस्सेसा। हत्यो चित्ता य तहा, इस विद्धिकराई नारणस्स ।। ७. ज्ञान-वृद्धिकर नक्षत्र दस प्रज्ञप्त हैं । जैसे किमृगशिर, आर्द्रा, पुष्य, तीन पूर्वा [पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वा भाद्रपदा] मूल, आश्लेषा, हस्त और चित्रा-ये दस [ नक्षत्र ] ज्ञान की वृद्धि करते हैं। समवाय-१० समवाय-सुत्त
SR No.010827
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages322
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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