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________________ अट्ठसत्तरिमो समवायो १. सक्कस्त गं देविदास देवरप्पो वेतमणे महाराया अळसत्तरीए सुवागकुमारदीवकुमारावाससयसहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्वं भट्टितं तापित्तं महारायत्तं प्रापा-ईसर-सेणावच्चं कारेवाणे पालेनाणे विहर। अठत्तरवां समवाय १. देवेन्द्र देवराज शक्र के महाराज वैश्मण सुपर्णकुमार और द्वीपकुमार के अउत्तर जत-सहनलान आवासों का प्राषिपत्य, पौरपत्य, भर्तृत्व, स्वामित्व, महाराजत्व तथा आना, ऐश्वर्य और सेनापतित्व करते हुए, उनका पालन करते हुए विचरण करता है। २.स्थविर अपित अठत्तर वर्ष की सर्वायु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दुःखरहित हुए। २. धेरे में अकंपिए अतत्तरि वाताई सघाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिन्डे सबदुत्तप्पहीणे । ३. उत्तरायणनिय? णं सूरिए पढमानो मंडलानो एगणचत्तालोसइने मंडले अहत्तरि एगसदिभाए दिवसखेत्तस्स निवड्वेत्ता रचरिणतेत्तस अभिनियुत्ता णं चारं चरइ । ३. उत्तरायण से निवृत सूर्य प्रथम मंडल से उनतालीसवें मंडल में दिवस-क्षेत्र को एक मुहुर्त के इकलठवें अत्तर भाग (६ मुहत) प्रमाण न्यून और रजनी-क्षेत्र को इसी प्रमाण में अविक करता हुया संचरण करता ४. एवं दक्षिणायणनियटटेदि। ४. इसी प्रकार दक्षिणायन से निवृत सूर्य भी। समवाय-फुत्त समवाय-सुत्त १७६ समवाय-७८
SR No.010827
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages322
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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